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सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द जी का इतिहास जिन्होंने सिक्ख धर्म की रूप रेखा ही बदल दी|

सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द जी का इतिहास 




सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द जी थे|

 जन्म 

गुरु हरगोबिन्द जी का जन्म 1595 ईस्वी में अमृतसर जिले में सतिथ वडाली नामक गाँव में हुआ| वे गुरु अर्जुन देव जी के इकलौते पुत्र थे| उनकी माता का नाम गंगा देवी था| वे सिक्खों के 6वें गुरु थे| हमने अपने पिछले ब्लॉगस में बाकी 5 गुरुओ का इतिहास भी बताया हैं आप हमारी वेबसाईट पर क्लिक करके उन्हे भी देख सकते हैं| कहा जाता हैं कि हरगोबिन्द जी बचपन से ही बहुत तेज बुद्धि के बालक थे| भाई बुड्डा जी ने उन्हे विभिन्न शस्त्रों और धार्मिक बातों का ज्ञान दिया था| 1606 ईस्वी में अपने पिता की शहीदी पर वे 11 वर्ष की उम्र में गुरु गद्दी पर बैठे| गुरु हरगोबिन्द जी ने सिक्खों के साथ हुई पिछली घटनाओ के चलते नवीन नीति धारण की , जिसके फलस्वरूप उन्होंने सिक्ख समाज में बहुत कुछ बदलाव किये| 


गुरु हरगोबिन्द जी की नवीन नीति 


गुरु हरगोबिन्द जी ने गद्दी पर बैठने के बाद मीरी और पीरी नामक दो तलवारे धारण की| मीरी तलवार उनका सांसारिक कार्यों में नेतृत्व करती थी और पीरी उनका आध्यात्मिक कार्यों में नेतृत्व करती थी| उनसे पहले पाँच गुरुओ ने लोगों का सिर्फ आध्यात्मिक कार्यों में नेतृत्व किया था , लेकिन गुरु हरगोबिन्द जी ने सिक्खों का सैनिक दृष्टि से भी नेतृत्व करना शुरू कर दिया| 


गुरु हरगोबिन्द जी ने राजसी चिन्ह धारण किये और शाही ठाठ बाठ से रहने लगे| उन्होंने राजसी वस्त्र धारण किये और पगड़ी के ऊपर शाही ढंग से कलगी धारण कर ली| वे अपनी कमर में दो तलवारे धारण करने लगे| धीरे गुरु साहिब ने अपनी सेना तैयार करनी शुरू की| कहा जाता हैं कि उनके 52 से 60 अंगरक्षक थे , जिन्होंने उनकी राजसी ठाठ को और भी बढ़ा दिया| कहा जाता हैं कि गुरु हरगोबिन्द का तेज सूर्य की तरह चमकता था| 


गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपनी नवीन नीति के बारे में शीघ्र ही अपने सभी सिक्खों को सूचित किया| उन्होंने मसंदों को संदेश भेजा कि वे धन की जगह घोड़ों की भेट प्राप्त किया करे और जहां तक हो सके शस्त्रों की भेट भी प्राप्त किया करे| गुरु साहिब के आदेश का पालन किया गया और कुछ ही समय में उनके पास बहुत संख्या में घोड़े और शस्त्र जमा होने लगे| गुरु साहिब के पास कई योद्धा और पहलवान आने लगे उन्होंने 52 से 60 शूरवीरों को अपना अंगरक्षक नियुक्त किया| कुछ समय के बाद ही माँझा , दुआबा और मालवा के प्रदेशों से 500 नवयुवकों ने अपने आपको गुरु हरगोबिन्द की सेवा में समर्पित कर दिया| गुरु साहिब ने उन सबको एक एक घोडा और शस्त्र दिए और उन्हे अपनी सेना में भर्ती कर लिया| इन 500  सैनिकों को 100-100 की टुकड़ियों में बांटा गया| इसके अतिरिक्त गुरु साहिब की सेना में 800 घोड़े , 300 घुड़सवार और 60 बंदूकची थे| गुरु साहिब ने अपनी सेना में पठानों को भी भर्ती किया| पठानों की एक अलग टुकड़ी बनाई गई| 


गुरु हरगोबिन्द साहिब के दैनिक जीवन में भी बड़ा परिवर्तन आ गया| वे पहले ऐसे सिक्खों गुरु जिन्होंने राजसी वस्त्र धारण किये थे और वे शिकार भी खेला करते थे और घुड़सवारी भी किया करते थे| वे सुबह उठकर स्नान करते और शाही ढंग से वस्त्र और शस्त्र धारण करते और उसके उसके बाद वे हरिमंदिर साहिब जाया करते थे| वहाँ पर धर्म की शिक्षा देने के बाद वे लंगर में जाते और उनकी देख रेख में सभी लोगों को कतारों में बिठाकर खाना खिलाया जाता था| उसके बाद वे शिकार खेलने जाया करते थे| 


अकाल तख्त का निर्माण 


गुरु हरगोबिन्द जी ने हरिमंदिर साहिब के समीप ही एक भवन का निर्माण करवाया जिसको उन्होंने अकाल तख्त नाम दिया| जिसका मतलब ईश्वर की गद्दी होता हैं| इसे अकाल बूँगा भी कहा जाता हैं| इसका निर्माण 1609 ईस्वी में पूरा हुआ| इसके अंदर एक 12 फुट ऊच चबूतरे का निर्माण करवाया गया जो कि राजाओ के तख्त के समान बराबर था| यहाँ गुरु साहिब सिक्खों का राजनीतिक मामलों में नेतृत्व किया करते थे| अकाल तख्त के पास ही अखाड़े में गुरु साहिब अपने सिक्खों की कुशतिया करवाया करते थे| वे सिक्खों को शारीरिक रूप से बलवान बनाना चाहते थे| अकाल तख्त का निर्माण हरिमंदिर साहिब के समीप करवाना सिक्खों के लिए ये संकेत था कि उन्हे अपने धार्मिक कर्तव्यों के साथ साथ अपने राजनीतिक कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए| अकाल तख्त में गुरु युद्ध से संबंधी योजनाए बनाया करते थे| 


अमृतसर की किलेबंदी 


गुरु साहिब ने ये अनुभव करते हुए कि मुख्य कार्यालय की सुरक्षा अनिवार्य हैं , अमृतसर के चारों तरफ दिवारे बनवाई| उन्होंने इस नगर में लोहगढ़ नामक एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया| इस दुर्ग का निर्माण इसलिए करवाया गया ताकि संकट के समय इस दुर्ग में शरण ली जा सके और दुश्मनों का सफलतापूर्वक विरोध किया जा सके|


शुरू में गुरु साहिब की नवीन नीति किसी की भी समझ में नहीं आई कि गुरु साहिब राजसी वेश क्यू धारण कर रहे हैं लेकिन बाद में सबने ये माना कि ये नवीन नीति सिक्खों के लिए बहुत जरूरी हैं| 



गुरु हरगोबिन्द जी के काल की मुख्य घटनाए 


गुरु गद्दी पर बैठने के कुछ समय के बाद गुरु हरगोबिन्द जी को मुग़ल सम्राट जहांगीर ने दिल्ली बुलाया और उन्हे ग्वालियर के किले में कैद करने का आदेश दिया| कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुरु साहिब को नजरबंद करने के कारण ये थे कि उन्होंने अपने पिता गुरु अर्जुन देव पर लगाया गया जुर्माना अदा करने से इनकार कर दिया था| लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुरु साहिब पर किसी तरह का कोई जुर्माना नहीं लगाया गया था| दूसरी तरफ कुछ लोगों का ये कहना हैं कि गुरु साहिब को बंदी बनाने का कारण उनकी नवीन नीति थी| क्युकी गुरु साहिब सेना का संगठन करने लगे थे और शस्त्र धारण करने लगे थे , जिस वजह से गुरु साहिब के विरुद्ध जहांगीर ने कारवाही करते हुए उन्हे कैद कर लिया| गुरु साहिब के कैद के समय को लेकर भी इतिहास में ठीक ठीक जानकारी नहीं मिलती , कुछ लोगों के अनुसार उनके कैद का समय 5 वर्ष था कुछ के अनुसार 12 वर्ष और कुछ के अनुसार तो वे केवल 40 दिन कैद में रहे थे| लेकिन ज्यादातर लोग ये मानते हैं कि गुरु साहिब केवल 2 वर्ष ही कैद में रहे थे| 


उसके बाद उन्हे रिहाह कर दिया गया उनकी रिहाई का समाचार सुनकर ग्वालियर दुर्ग के कैदी राजा बहुत निराश हुए| वे गुरु साहिब के व्यक्तित्व से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे और उनके साथ कारावास में अपने सारे दुख भूल गए थे| उन्हे उदास देखकर गुरु साहिब को बहुत दया आई और उन्होंने सम्राट को कहलवा भेजा कि वे दुर्ग से तभी निकलंगे जब उनके बाकी साथी भी रिहा होंगे| अंत में मुग़ल सम्राट को गुरु साहिब की बात माननी पड़ी| गुरु साहिब के साथ 52 बंदी राजाओ को मुक्त करना पड़ा| इस श्रेठ कार्य के लिए गुरु साहिब को बंदी छोड़ बाबा कहा जाने लगा| 

गुरु साहिब के ग्वालियर से रिहा होने के बाद मुग़ल सम्राट जहांगीर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए| सम्राट के मन में गुरु के साहिब के खिलाफ कोई गलतफहमी नहीं रही| गुरु हरगोबिन्द जी ने अपनी सैनिक योग्यता के चलते मुग़ल सम्राट के यहाँ नौकरी कर ली| गुरु साहिब को 700 घुड़सवारों ,1000 प्यादों और सात तोपों की सेना का अध्यक्ष बनाया गया| लेकिन बहुत से लोग इसे सच नहीं मानते| 


अकतूबर 1627 ईस्वी में जहांगीर की मौत हो गई और उसके बाद उसका पुत्र खुर्रम यानि कि शाहजहाँ गद्दी पर बैठा| शाहजहाँ के गद्दी पर बैठने से अब गुरु हरगोबिन्द जी और मुग़ल सम्राट में अब मैत्रीपूर्ण संबंध ना रहे| क्युकी शाहजहाँ एक कट्टर मुसलमान था और वो गैर मुसलमानों से नफरत करता था| जिस वजह से गुरु साहिब और मुग़लों के बीच बहुत से युद्ध भी हुए| गुरु साहिब और मुग़ल सम्राट के बीच शत्रुता के बहुत से कारण थे|


शाहजहाँ ने सिक्खों के बहुत से गुरुद्वारों को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया और गुरु अर्जुन देव जी द्वारा बनवाई गई बावलियों को मिट्टी से भर दिया| 

गुरु हरगोबिन्द जी की नवीन नीति के कारण भी गुरु साहिब और शाहजहाँ में शत्रुता बढ़ने लगी| 

लेकिन इस सब में एक मुख्य कारण और भी था जिस वजह से सिक्खों और मुग़लों में युद्ध हुआ| 


कौलआ का मामला 


कौलआ लाहौर के काजी रुस्तम खान की पुत्री थी| वह धर्म परायण स्त्री थी| वह मिया मीर की शिष्या बन गई| कहा जाता हैं कि वो पाँचवे गुरु अर्जुन देव जी कि वाणी से भी बहुत प्रभावित हुई थी| काजी को कट्टर सुन्नी होने के कारण अपनी बेटी का ये ढंग नहीं पसंद था| इसलिए वो उसके घूमने फिरने पर प्रतिबंध लगाता था| कौलआ ने परेशान होकर अपने पिता का घर छोड़ दिया और वो मिया मीर के पास चली गई थी , बाद में मिया मीर ने उसे गुरु हरगोबिन्द जी के पास भेज दिया| ये देखकर काजी को बहुत गुस्सा आया और उसने इस अपमान का बदल लेने के लिए मुग़ल सम्राट के सिक्खों के विरुद्ध कान भरे| इन सब कुछ कारणों की वजह से सिक्खों और मुग़लों में युद्ध अनिवार्य हो गया| 


अमृतसर की लड़ाई 1634 ईस्वी 


1634 ईस्वी में एक बाज के कारण सिक्खों और मुग़लों में युद्ध अनिवार्य हो गया| शिकार खेलते हुए मुग़लों का एक बाज गुरु साहिब के सिक्खों के हाथों में या गया| मुग़ल सैनिकों ने गुलाम रसूल खाँ के नेतृत्व में सिक्खों को शाही बाज लौटाने को कहा परंतु सिक्खों ने भाई विधि चंद के नेतृत्व में बाज देने से इनकार कर दिया , क्युकी शिकार के नियमों के अनुसार वह बाज पर अपना हक मानता था| इस पर दोनों में झड़प हो गई और इसमें रसूल खाँ बुरी तरह घायल हो गया और दो मुग़ल सैनिक मारे गए| अब मुग़ल सम्राट ने लाहौर से गुरु साहिब के विरुद्ध 7000 की सेना भेज दी| गुरु साहिब ने लगभग 700 सैनिकों सहित मुग़लों की दस गुना से अधिक सेना का बड़ी वीरता से मुकाबला किया| गुरु साहिब के साथ भाई विधि चंद और भाई जेठा ने इस लड़ाई में असाधारण योग्यता का प्रमाण दिया| पठान सेनानायक पैदा खाँ भी बड़ी वीरता से गुरु साहिब की तरफ से लड़ा| अंत में सिक्ख विजयी हुए| अमृतसर की लड़ाई पंजाब के इतिहास में मुसलमानों और सिक्खों में पहली लड़ाई थी| इस लड़ाई में गुरु साहिब को शानदार विजय प्राप्त हुई| 


लाहिरा की लड़ाई 1634 ईस्वी 


अमृतसर की लड़ाई के कुछ समय के बाद ही सिक्खों और मुग़लों में लाहिर नामक स्थान पर दूसरी लड़ाई हुई| इस लड़ाई का कारण दो घोड़े थे| दो मसंदों ने गुरु साहिब के लिए बहुत ही सुन्दर घोड़े ला रहे थे , जिनके नाम दिलबाग और गुलबाग थे| लेकिन मार्ग में ही मुग़ल सैनिकों ने दोनों घोड़े छीन लिए और शाही असतबल में भेज दिए| भाई विधि चंद जो गुरु साहिब का अनुयायी था इस चीज को सहन नहीं कर सका| उसने वेश बदल कर सही अस्तबल से दोनों घोड़े चुरा लिए| इसके बाद शाहजहाँ क्रोधित हो गया और उसने लाला बेग और कमर बेग के नेतृत्व में गुरु साहिब के विरुद्ध सेना भेज दी| मुग़लों की सेना का समाचार पाते ही गुरु साहिब भटिंडा के जंगलों में चले गए| ये गुरु साहिब की कूटनीति थी क्युकी इन रेगीस्तानी जंगलों में मुग़लों का सिक्खों का पीछा करना बेकार होगा| यहाँ मुग़लों को पता चल कि गुरु साहिब अपने सिक्खों के साथ भटिंडा के जंगलों में हैं तो वो अपनी सेना के साथ वहाँ चल दिया और सिक्खों और मुग़लों के बीच घमासान लड़ाई हुई| मुग़ल सैनिक भूख प्यास से मरने लगे और अंत में गुरु साहिब की शानदार विजय हुई| गुरु साहिब ने अपनी बुद्धिमता के बल पर इस लड़ाई को जीता था| लेकिन इस लड़ाई में सिक्ख शहीद हो गए थे| 


करतारपुर की लड़ाई 1635 ईस्वी 


सिक्खों और मुग़लों की तीसरी लड़ाई करतारपुर में हुई| इस लड़ाई का कारण पैदा खाँ था| पैदा खाँ गुरु साहिब की सेना में सेनानायक था| गुरु साहिब पैदा खाँ से बहुत अधिक प्रेम करते थे और उसे अपने पुत्र के समान समझते थे| पैदा खाँ भी गुरु साहिब से बहुत प्रेम करता था| लेकिन अब वो बहुत ज्यादा अभिमानी हो चुका था| अपने दामाद के कहने पर उसने  गुरु साहिब के भाई गुरदित्ता का एक बाज चुरा और गुरु साहिब से आंखे चुराने लगा| सिक्खों ने वह बाज पैदा खाँ के घर से उठा कर गुरु साहिब के सामने रख दिया| गुरु साहिब ने पैदा खाँ को दंड देने के लिए दरबार से निकाल दिया| पैदा खाँ ने अपने इस अपमान का बदला लेने का सोचा| वो जाकर शाहजहाँ से मिल गया और उसे गुरु साहिब के विरुद्ध भड़काने लगा| शाहजहाँ ने पैदा खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना गुरु साहिब के खिलाफ भेजी| इस सेना में बड़े बड़े योद्धा थे| करतारपुर में एक घमासान लड़ाई हुई| गुरु साहिब के साथ उनके पुत्र गुरु तेगबहादुर भी शामिल थे| इस लड़ाई में बहुत से मुसलमान मारे गए और बहुत से सिक्खों भी युद्ध में शहीद हो गए| पैदा खाँ भी इस युद्ध में मारा गया| लेकिन इतने घमासान युद्ध के बाद भी सिक्ख विजयी हुए| 


फगवाड़ा की लड़ाई 1635 ईस्वी 


करतारपुर की लड़ाई के बाद गुरु साहिब मुग़लों से और युद्ध नहीं करना चाहते थे| पहला कारण तो ये थे कि उनकी तुलना में मुग़ल सैनिक बहुत अधिक संख्या में थे और गुरु साहिब के पास साधन बहुत कम थे| दूसरा कारण ये थे कि गुरु साहिब के बहुत से सिक्ख वीरगति को प्राप्त हो चुके थे| और अब वे अपना ध्यान और शक्ति धर्म प्रचार में लगाना चाहते थे| गुरु साहिब इस उद्देश्य के लिए कीरतपुर की तरफ रवाना हो गए| लेकिन मुग़ल सैनिक उनका पीछा कर रही थी और उन्होंने फगवाड़ा नामक स्थान पर मार्ग में ही उन्हे आकर घेर लिया| गुरु साहिब और मुग़लों के बीच युद्ध हुआ| इस युद्ध में मुग़ल सैनिक बहुत कम संख्या में थे , और सिक्ख भी इस युद्ध में बहुत कम संख्या में थे| इस युद्ध में गुरु साहिब और उनके सिक्खों की जीत हुई| 



इसके बाद गुरु साहिब कीरतपुर में निवास करने लगे| कहलूर के राजा कल्याण चंद ने गुरु साहिब को कुछ भूमि भेट की| इस भूमि पर गुरु साहिब ने बाद में एक नए नगर का निर्माण करवाया जिसका नाम कीरतपुर रखा गया| गुरु हरगोबिन्द जी ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्ष इसी भूमि पर बिताएँ| यहाँ वे एक फकीर सा जीवन बिताने लगे और उन्होंने तकिये का प्रयोग करना भी छोड़ दिया| वह रोज लोगों को धर्म की शिक्षा देते थे| उन्होंने बहुत से लोगों को सिक्ख बनाया| उन्होंने कई पहाड़ी राजाओ को भी सिक्ख बनाया| गुरु साहिब को अपने जीवन के अंतिम दस वर्षों में बहुत से दुख झेलने पड़े| उनकी पत्नी और तीन पुत्रों का एक बाद एक करके देहांत हो गया| उन्हे सबसे अधिक दुख अपने बड़े पुत्र बाबा गुरदिता के देहांत का हुआ| इसके बाद बाबा गुरदिता के पुत्र धीरमल ने करतारपुर में गुरु साहिब की सम्पति पर अधिकार कर लिया और गुरु ग्रंथ साहिब की मूल प्रति देने से इनकार कर दिया| 


जब गुरु साहिब को महसूस हुआ कि उनका अंत निकट या रहा हैं तो उन्होंने अपने पोते हरराय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया| उन्होंने रीति के अनुसार उनके सामने पाँच पैसे और एक नारियल रख कर उनके सामने सिर झुकाया और भाई बुड्डा जी ने उनके माथे पर तिलक लगाया| इसके बाद गुरु हरगोबिन्द जी का 1645 ईस्वी में देहांत हो गया| गुरु साहिब के देहांत पर सिक्ख बहुत ही दुखी हुए और दो सिक्खों ने तो उनकी चिता पर कूद कर अपने प्राण त्याग दिए| 


तो ये था हमारा आज का ब्लॉग गुरु हरगोबिन्द जी के ऊपर आपको ये पोस्ट कैसी लगी हमे कमेन्ट बॉक्स में जरूर बताएँ और हमारी वेबसाईट knowledge book stories को भी जरूर फॉलो करे और अगले ब्लॉग पोस्ट में हम आपको गुरु हरराय का इतिहास बताएंगे| धन्यवाद | 



 

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