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आखिर पल्लव कौन थे और कहाँ से आए थे

आखिर पल्लव कौन थे और कहाँ से आए थे 



पल्लव कौन थे और कहा से आए , इस संबंध में काफी विवाद हैं| क्युकी दक्षिण भारत की परंपरागत शक्तियों में चेर , चोल और पाण्ड्य का नाम आता हैं , इसलिए कुछ लोग पल्लवों को विदेशी मानते हैं और ऐसे लोगों का विश्वास हैं की ये लोग पार्थिव की शाखा थे| दूसरा सिद्धांत ये हैं की वे सुदूर दक्षिण के आदिवासी थे और कुरुंब , कल्लर तथा अन्य हिंसक जातियों से उनका संबंध था| इन लोगों को संगठित कर पल्लवों ने अपने आपको शक्तिशाकी बनाया था| संगम साहित्य में पल्लवों को तोनडेयर कहा गया हैं| कृषणस्वामी आयंगर के अनुसार वे लोग उन नाग राजाओ के वंशज थे , जो सातवाहनों के सामंत थे| 




भूतपूर्व सातवाहनों के दक्षिण पूर्व में पल्लवों ने अपनी राजधानी कांचीपुरम में बनाई| विदेशी पल्लव से उनकी तुलना की जा सकती हैं| इस संबंध में कहा जाता हैं की जब नंदिवर्माण द्वितीय सिंहासन पर बैठा तब उसे हाथी के आकार का ताज दिया गया , जो डैमेट्रियस के ताज की याद दिलाता हैं| ऐसा भी कहा जाता हैं की पल्लव पहले उत्तर के निवासी थे जो बहुत पहले दक्षिण में जाकर बस गए और जिन्होंने दक्षिण की परम्पराओ को अपना लिया था| स्कंदवर्मा के समय पल्लवों का राज्य उत्तर में कृष्ण नदी और पक्षिम में अरब सागर तक फ़ैला था| वह कांची का प्रथम पल्लव शासक था| वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था| ये लोग ब्राह्मण धर्म का अनुसरण करते थे| 


प्रारम्भिक इतिहास 


कुछ लोगों के अनुसार अशोक के पूर्व भी पल्लव थे| उनका वास्तविक इतिहास आंध्र साम्राज्य के पतन के बाद शुरू हुआ| तीसरी चौथी शताब्दी में पल्लवों का उदय हुआ| उस राजवंश का संस्थापक बप्पदेव था , जिसके अधीन आंध्र और तोड़मंडल थे| अमरावती और कांची पर उनका प्रभाव था| आंध्र कि राजधानी अमरावती में थी और तोडमंडल की कांची में| बप्पदेव का पुत्र शिवसकंदवर्मा एक शक्तिशाली शासक था| उसने दक्षिण की और अपने राज्य का विस्तार किया| उसने अश्वमेध , वाजपेय और अग्निष्टोम यज्ञों के अनुष्ठान किये| उसने महारजाधिराज की पदवी धारण की| दक्षिण में बहुत दूर तक उसका प्रभाव था| कुछ लोग उसे विजयसकंदवर्माण भी कहते हैं| उसने कांची से अरब सागर के मध्यवर्ती प्रदेश पर राज्य किया| उसके बाद विष्णुगोप शासक हुआ| पाकवक और उग्रसेन उसके सामंत थे| विष्णुगोप का उल्लेख समुद्रगुप्त के शिलालेख में भी मिलता हैं| उसने गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त कि अधीनता स्वीकार की थी| इन सब बातों से ये सिद्ध होता हैं की सातवाहनों के पतन के बाद ही इनका उत्कर्ष शुरू हो गया होगा| 



सिंहविष्णु (575-600ईस्वी )


छठी शताब्दी से पल्लवों का प्रामाणिक इतिहास मिलता हैं| तबसे इनकी शक्ति में तीव्रता से विकास होता हैं| इस वंश वास्तविक और ऐतिहासिक संस्थापक सिंहविष्णु को माना जाता हैं| सिंहविष्णु को अविष्णु भी कहा जाता हैं| वह बड़ा प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक था| कावेरी तक के समस्त प्रदेश को जीतने के कारण उसे अवनिसिंह की उपाधि मिली थी| उसने चोल , पाण्डेय , सिंहल और मलनाडु के राजाओ को पराजित किया| वह वैष्णवधर्म का अनुयायी था| 



महेंद्रवर्माण प्रथम 



सिंहविष्णु के बाद महेंद्रवर्मन प्रथम शासक हुआ| उसे महेंद्रविक्रम भी कहा जाता है| इसी समय कर्नाटक और महाराष्ट्र में चालुकयो की शक्ति का उत्कर्ष हो रहा था| चालुक्यराज पुलकेसीन द्वितीय और पल्लवराज महेंद्रवर्मन के बीच दक्षिणापथ के लिए संघर्ष प्रारंभ हुआ| इस संघर्ष में आंध्रप्रदेश में वेंगी का राज्य पल्लवों के हाथों से निकलकर चालुकयो के अधिकार में चला गया| द्रविड प्रदेश में पल्लवों की शक्ति प्रबल रही| उसने दक्षिण की और अपने राज्य का विस्तार किया और चोल राजाओ को दबाकर रखा| वह कवि और संगीतज्ञ भी था| वह पहले जैनधर्म को मानने वाला था पर बाद में शैवधर्म के प्रभाव में आ गया| धर्म परिवर्तन के बाद वह जीवन में उदार हो गया| उसने शैवमंदिरों के साथ-साथ ब्राह्मण और वैष्णव मंदिर भी बनवाए| वह द्रविड प्रदेशों में चट्टानों को काटकर मंदिर बनाने की कला का प्रवर्तक माना जाता हैं| वह स्वयं एक अच्छा लेखक माना जाता हैं| पुलकेसीन द्वितीय , हर्षवर्धन और महेंद्रवर्मन प्रथम तीनों ने अपने -अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किये| जिस प्रकार हर्ष ने उत्तर में विशाल साम्राज्य का निर्माण किया उसी प्रकार महेंद्रवर्मन ने दक्षिण में कृष्ण नदी के दक्षिण में सतिथ सभी राजयो को एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया| सुदूर दक्षिण के चोल , पाण्डेय और चेर भी उसकी अधीनता स्वीकार करते थे| 



नरसिंहवर्मन प्रथम 


महेंद्रवर्मन प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन राजा बना| उसने 630 ईस्वी से 668 ईस्वी तक राज किया| उसे नरसिंहवर्मन प्रथम महामल्ल भी कहा जाता हैं| उसने चालुक्य राज्य की राजधानी वातापी पर आक्रमण किया , जहां पुलकेसीन लड़ता हुआ मारा गया| इसके बाद उसने वातापीकोंड उपाधि धारण की| उसके बाद उसने अपने नियुक्त किये मानवर्मा को लंका की गद्दी पर बैठाने के लिए वहाँ दो नाविक अभियान किये , इस अभियान का प्रभाव लंका में बहुत दिनों तक बना रहा| मानवर्मा कि शक्ति वहाँ प्रतिष्ठित हो गई| हालंकि कि उसने अपने प्रतिद्वंदीयों को मारकर अनुराधपुर पर अधिकार कर लिया था , फिर भी उसे एक बार निर्वासित होना पड़ा तथा पल्लव में शरण लेने को विवश होना पड़ा| उसने महामल्ल कि उपाधि भी धारण की| सम्पूर्ण दक्षिण भारत पर प्रभुत्व छा गया| कहा जाता हैं की नरसिंहवर्मन ने चोल , चेर , कलब्र्भ और पाण्डेय सभी को युद्ध में पराजित कर दिया| पल्लव शक्ति उसके समय सर्वोच शिखर पर थी| उसके समय महाबलीपुरम बड़ा ही महत्वपूर्ण था| उसी के समय चीनी यात्री हुएनसांग कांची गया था| उसके अनुसार ये देश द्रविड कहलाता था और कांचीपुरम इसकी राजधानी थी| वहाँ अनेक प्रकार के फल और फूल थे| बहुमूल्य रत्न और वस्तुए ए=वहाँ उत्पन्न होती थी| प्रजा साहसी थी| लोग सत्यप्रिय और ईमानदार थे| विद्या का बड़ा आदर था| भाषा और लिपि मध्य प्रदेश से भिन्न नहीं थी| 100 संघरामों में दस हजार भिक्षु रहते थे| वे लोग महायानी थे| यहाँ प्राय 80 देवमंदिर थे| अशोक ने उन स्थानों पर स्तूपों का निर्माण करवाया था| प्रसिद्ध बोधाचार्य धर्मपाल कांची के निवासी थे| 



परमेश्वरवर्मन प्रथम 


नरसिंहवर्मन के बाद उसका पुत्र महेंद्रवर्मन राजा बना जिसका संघर्ष चालुक्य विक्रमादित्य प्रथम के साथ हुआ और उसके बाद परमेश्वरवर्मन प्रथम शासक हुआ| उसके समय में चालुक्य , पाण्डेय और गंगो में मेल हो जाने से संघर्ष बढ़ गया| लेकिन उसने वातापी पर आक्रमण करके उनके संघर्ष को विफल कर दिया था| विक्रमादित्य प्रथम ने कांची पर अधिकार कर लिया , परंतु परमेश्वरवर्मन ने उसकी सेना को पराजित कर दिया था| वह शैव था और उसने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था| 



नरसिंहवर्मन द्वितीय 



इनके शासनकाल में शांति रही और संस्कृति को विशेष प्रोत्साहन मिला| इनका शासनकाल बाहरी आक्रमणों से मुक्त रहा| उसने अपने शासनकाल में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया , जिनमे कांची का कैलाश मंदिर और महाबलीपुरम के मंदिर प्रसिद्ध हैं| कांची का ऐरातेश्वर मंदिर भी प्रसिद्ध हैं| मामल्लपुर में भी समुन्द्र तट पर मंदिर बने| इन सांस्कृतिक प्रगतियों का मुख्य कारण ये था कि 681 से 733 ईस्वी तक पल्लव चालुक्य संघर्ष बंद था| उसका शासनकाल साहित्यक क्रियाशीलता का युग था| उसने चीन के सम्राट के यहाँ अपना दूत भेजा था| 



परमेश्वरवर्मन द्वितीय 


उसके बाद परमेश्वरवर्मन द्वितीय राजा हुआ| उसके राज्य में चालुक्य आक्रमणकारियों को कर देना पड़ा| उसकी कोई संतान नहीं थी| उसके बाद नंदिवर्मा द्वितीय राजा हुआ| उसने अश्वमेध यज्ञ किया| चालुक्य विक्रमादित्य और गंगश्रीपुरष के हाथों उसकी पराजय हुई थी| उन्होंने 740 ईस्वी में कांची पर कब्जा कर लिया| नंदिवर्मा ने फिर से राज्य वापस लिया और अपनी गद्दी पर बैठा| राष्टकूट दंतिदूर्ग ने 750 ईस्वी में कांची पर आक्रमण किया , किन्तु पल्लवमल्ल के साथ उसकी पुत्री रेवा के विवाह के रूप में इसका उपसंहार हुआ|  नंदिवर्म ने 775 ईस्वी में गंगराज श्रीपुरुष को परास्त किया , परंतु वह पाण्डेयराज जटिल परांतक प्रथम के हाथ हार गया| उसने 795 ईस्वी तक राज किया| उसने वेंगी के पूर्वी चालुकयो से उनके राज्य का कुछ भाग छीन लिया था| वह एक कुशल शासक और विजेता था| उसने अपने सभी शत्रुओ को पराजित किया था| उसका शासनकाल बड़ा ही व्यस्त रहा , क्युकी उसके समय में बराबर संघर्ष होता रहा| उसने कांची में वैकुंडपेरुमाल का मंदिर बनाया| उसने अपनी राजधानी कांची में मुक्तेश्वर का मंदिर बनवाया| 



उसके पुत्र दंतिवर्मा को पाण्डेय आक्रांता वरगुण प्रथम को तनजोर , त्रिचनापल्ली आदि दक्षिण के बहुत से प्रांत समर्पित करने पड़े| उसके समय समय शक्ति आंदोलन जोर पर था| उसने समय महान आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ| उसके बाद उसका पुत्र नंदिवर्मा तृतीय गद्दी पर बैठा| उसने गंग , चोल , राष्ट्रकूट और लंका के राजाओ के साथ संधि कर पाण्डेयराज श्रीमार श्रीवल्लभ की शक्ति क्षीण कर दी , परंतु अंत में कुम्भकोण के युद्ध में 851 ईस्वी में उसकी हार हुई| उसके पास नोसेना थी , जिसने द्वारा उसने मलाया प्रायद्वीप से संपर्क रखा| 860 ईस्वी में उसका पुत्र नृपटूँग राजा हुआ और उसने पाण्डेयराज श्रीमर को हराकर अपने पिता की पराजय का बदला लिया| उसी समय लंका के राजा सेन द्वितीय ने उसकी राजधानी मदुरा को ध्वस्त कर दिया| 



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