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सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास जी का इतिहास |

 सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास जी का इतिहास | History of guru amardas ji 




गुरु अंगद देव जी ने गुरु अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी बना दिया| जिसके बाद गुरु अमरदास जी सिक्खों के तीसरे गुरु कहलाये| 


जन्म 

गुरु अमरदास जी का जन्म 1479 ईस्वी में आधुनिक अमृतसर में सतिथ बासरके गाँव में हुआ था| उनके पिता का नाम तेज भान था जो भल्ला जाति के खत्री थे| उनकी माता के नाम के बारे में इतिहास में ठीक ठीक पता नहीं चलता हैं , उनकी माता का नाम इतिहासकार भूप कौर , लक्ष्मी , रूप कौर आदि बताते हैं| गुरु अमरदास जी अपने माता पिता के सबसे बड़े बेटे थे| 


गुरु अमरदास जी अपने पिता के साथ व्यापार और कृषि दोनों ही धंधे किया करते थे| अपने छोटे भाइयों के साथ मिलकर वे खेती और तेल का व्यापार किया करते थे| जब अमरदास जी 23 वर्ष के हुए तो उनका विवाह कर दिया गया| उनकी पत्नी का नाम मनसा देवी था| उनके घर दो पुत्रों तथा दो पुत्रियों ने जन्म लिया , पुत्रों के नाम मोहन तथा मोहरी थे और पुत्रियों के नाम दानी तथा भानी|  अमरदास जी बचपन से ही धार्मिक विचारों के थे| बड़े होने पर वह वैष्णव मत के अनुयायी बन गए| वह प्रतिवर्ष गंगा स्नान के लिए जाया करते थे| 


लेकिन इस सब के बाद भी उनका मन अशांत रहता था| क्युकी उनका कोई भी गुरु नहीं था| कहा जाता हैं कि एक बार जब वे गंगा स्नान करके वापस या रहे थे तो उनकी भेट एक साधु हुई| अमरदास जी ने उस साधु को भोजन कराया| भोजन कराने के बाद उस साधु ने उनसे उनके गुरु के बारे में पूछा| जब अमरदास जी ने उन्हे बताया कि उनका कोई गुरु नहीं हैं तो वो साधु बहुत ही क्रोधित हुआ और कहने लगा कि मैंने एक गुरुहीन व्यक्ति के हाथों भोजन करके बहुत बड़ा पाप किया हैं अब मुझे वापस गंगा में स्नान करने के लिए जाना होगा| इस शब्द को सुनकर गुरु अमरदास जी बहुत क्रोधित हुए और ईश्वर से प्राथना करने लगे कि उनका भी एक गुरु होना चाहिए| 


गुरु अंगद देव जी के शिष्य 


ईश्वर की कृपा से एक दिन गुरु अमरदास जी ने गुरु अंगद देव की पुत्री के मुह से गुरु नानक साहिब की वाणी सुनी| जिसे सुनकर गुरु अमरदास जी बहुत प्रभावित हुए| उसके बाद वह जल्दी ही बीबी अमरो को साथ लेकर वे खडुर को निकल गए| गुरु अंगद देव जी से मिलने के बाद वे गुरु अंगद देव जी के चरणों में गिर पड़े और उन्हे अपना गुरु बना लिया| इस समय अमरदास जी की उम्र 62 वर्ष थी| उन्होंने गुरु साहिब के पास खडुर में ही निवास किया| उन्होंने 11 वर्षों तक गुरु साहिब की तन मन से सेवा की| उम्र में वे गुरु अंगद देव बहुत बड़े थे लेकिन फिर भी वह गुरु अंगद देव कि बहुत सेवा किया करते थे| वह रोज ही ब्यास नदी से जो वहाँ से करीब 5 किलोमीटर दूर था गुरु साहिब के स्नान करने के लिए पानी लाया करते थे| कई लोग उन्हे पागल कहा करते थे , 


उनकी हंसी उड़ाया करते थे| लेकिन गुरु अमरदास जी इन सब चीजों की प्रवाह नहीं करते थे| गुरु साहिब ने सच्चे मन से गुरु अंगद देव की सेवा की थी| वह गुरु जी का इतना सत्कार करते थे कि घर में भी कभी उनके सामने पीठ करके नहीं बैठते थे| वह गुरु साहिब के घर से कुछ भी नहीं खाया करते थे , बल्कि नामक तेल आदि का व्यापार जो कुछ थोड़ा बहुत कमाते थे उसी से अपना जीवन निर्वाह करते थे| एक दिन एक घटना हुई जिसके बाद गुरु अंगद देव जी ने गुरु अमरदास को गुरु गद्दी सौंप दी| जनवरी 1552 ईस्वी में एक दिन जब सख्त सर्दी पड़ रही तब अमरदास रोज की तरह गुरु साहिब के लिए ब्यास नदी से गुरु साहिब के स्नान के पानी लाया करते थे| एक दिन जब वे पानी लेकर आ रहे थे तो एक जुलाहे के घर के आगे कील की ठोकर लगने से वे गिर पड़े|


 गिरने की आवाज सुन के जुलाहे का परिवार जाग उठा और जुलाहे की पत्नी ने तुरंत कहा ' आधी रात के समय यहाँ गिरने वाला अवश्य ही वह मूर्ख बेघर अमरू होगा'| अगले दिन जब गुरु साहिब को इस घटना का पता चला तो उन्होंने अमरदास को बुलाकर कहा ' अमर बेघर नहीं हैं बल्कि निरक्षतों का आश्रय हैं '| इसके बाद उन्होंने अमरदास जी को अपना उत्तराधिकारी बना लिया| मार्च 1552 ईस्वी में अमरदास जी को अमरदास जी के गुरु गद्दी पर बैठने की साधारण रस्म अदा की गई| गुरु अंगद साहिब ने उनके सामने एक नारियल और पाँच पैसे रख कर सिर झुकाया| 


गुरु प्राप्त करने के बाद कठनाईया 


गुरु गद्दी प्राप्त के बाद गुर साहिब को अनेक तरह की कठनाईओ का सामना करना पड़ा| सबसे पहले तो गुरु अंगद देव जी के दोनों पुत्रों दातु और  दासू ने उन्हे गुरु मानने से इनकार कर दिया| उनका ये मानना थे की गुरु अंगद देव जी के पुत्र होने के कारण गुरु गद्दी पर उनका अधिकार हैं| कुछ समय के बाद दासू ने तो अपनी माता खीवी के प्रभाव में आकार गुरु साहिब का विरोध करना छोड़ दिया लेकिन दातु शत्रु बना रहा| उसने खडुर साहिब में अपने आप को गुरु घोषित कर दिया| गुरु अमरदास जी दातु से झगड़ा मोल नहीं लेना चाहते थे , इसलिए वे खडुर को छोड़कर गोइंदवाल चले गए| लोगों ने भी दातु को गुरु मानने से इनकार कर दिया और खडुर को छोड़कर गोइंदवाल चले गए| 


एक दिन दातु भी गोइंदवाल चला गया और वहाँ जाकर उसने गुरु साहिब को बहुत बुरा भला कहा और उन्हे लात मारकर सिंघासन से नीचे गिरा दिया| गुरु साहिब ने इस समय बहुत नम्रता से काम लिया और उन्होंने उसे कहा कि आपके पैरों को बहुत चोट लगी होगी मुझे माफ करे| इसके बाद गुरु साहिब गोइंदवाल को छोड़कर बासरके चले गए| दातु को गोइंदवाल में भी किसी ने गुरु नहीं माना और हार कर वो वापस खडुर को चल दिया| भाई बुड्डा और दूसरे सिक्खों ने गुरु साहिब को वापस बासरके से गोइंदवाल ले आए| 



गुरु नानक देव जी के पुत्र बाबा श्रीचंद उदासी मत के अध्यक्ष थे| गुरु अंगद देव जी के देहांत के बाद उन्होंने गुरु गद्दी हथियाने की कोशिश की और कहा कि गुरु गद्दी पर वास्तविक अधिकार उनका हैं| उनके बहुत से समर्थक और अनुयायी थे| बाबा श्रीचंद के कारण गुरु अमरदास की गद्दी को भी खतरा था| उन्होंने गुरु अंगद देव जी की तरह सीधे शब्दों में कहा कि जो भी उदासी मत की नीतियों को मानेगा उसका सिक्ख धर्म के साथ कोई संबंध नहीं होगा| और इस तरह से बहुत से सिक्ख गुरु अमरदास जी के साथ जुड़े रहे| 

गोइंदवाल के मुसलमान भी सिक्खों की बढ़ रही सर्वप्रियता के कारण ईर्ष्या करने लगे थे और उन्होंने सिक्खों को सताना शुरू कर दिया| कुछ समय के बाद क्षत्रधारी सन्यासीओ और मुसलमानों में मुठभेड़ हुई जिसमें बहुत से मुसलमान मारे गए|| उसके मुसलमानों पे ये आरोप लगाया गया कि उन्होंने  लाहौर से दिल्ली ले जाते हुए खजाने को लूटा हैं और उसके कईयों को कैद कर लिया गया और कईयों के मकान गिर दिए गए| इस तरह सिक्खों को तंग करने वाले मुसलमानों को मानो ईश्वर ने स्वयं दंड दिया| 


गुरु अमरदास जी को गोइंदवाल के उच्च हिन्दू जातियों का भी विरोध सहना पड़ा| नगर के ब्राह्मण और क्षत्रिय गुरु अमरदास जी के विरुद्ध हो गए| उन्होंने उस समय के मुग़ल सम्राट अकबर से इस बारे में शिकायत की और कहा कि गुरु साहिब जाति प्रथा के विरुद्ध प्रचार करके और अपना एक अलग तीर्थ स्थान स्थापित करके हिन्दू धर्म के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं| इसके बाद अकबर ने गुरु अमरदास जी को बुलावा भेजा| गुरु अमरदास जी ने अपने दामाद भाई जेठा जी को जो कि बाद में गुरु रामदास के नाम से प्रसिद्ध हुए को मुग़ल दरबार में भेज दिया| 


भाई जेठा जी ने बड़े ही योग्यता के साथ गुरु अमरदास जी पर लगाए गए सभी आरोपों को समाप्त कर दिया| इसके बाद अकबर ने भी ये माना कि गुरु साहिब पर लगाए गए सभी आरोप जूठे हैं , लेकिन उन्होंने गुरु  साहिब को फिर भी ये कहा कि गुरु साहिब को हिन्दुओ की संतुष्टि के लिए कुछ तीर्थ स्थानों की यात्रा कर आनी चाहिए और उनसे इस यात्रा का कोई कर नहीं लिया जाएगा| गुरु साहिब ने ये सोचकर कि वहाँ पर उन्हे अपने धर्म का प्रचार करने का अवसर मिल जाएगा इसलिए वो तैयार हो गए और उन्होंने कुरुक्षेत्र , पेहोवा आदि की यात्रा कर ली| 



गोइंदवाल में बावली का निर्माण 


गुरु अंगद देव जी के समय में गोइंदवाल नगर का निर्माण हुआ था और इस कार्य की देख रेख गुरु अमरदास जी कर रहे थे| गुरु बनने के बाद उन्होंने यहाँ पर एक बावली का निर्माण किया| इससे सिक्खों का अलग तीर्थ स्थान भी बन गया| गुरु अमरदास जी ने ये घोषणा कि की जो भी इस बावली की 84 सीढ़ियों पर जपूजी साहिब का पाठ निरंतर करेगा उसे 84 लाख योनियों से मुक्ति मिल जाएगी| गुरु अमरदास जी ने पहले दो गुरुओ की तरह ही लंगर की संस्था को आगे बढ़ाया| 


मँजी प्रथा 

गुरु अमरदास साहिब के समय में सिक्खों की संख्या बहुत बढ़ गई थी| और उनके भक्तों की बढ़ रही संख्या के कारण उन्हे अब हर जगह जाकर प्रचार करना पड़ता था जो कि उनके बहुत ज्यादा मुश्किल हो जाता था क्युकी वे अब बहुत ज्यादा वृद्ध हो चुके थे| इसलिए उन्होंने अपने सिक्खों की आवशकताओ को पूरा करने के लिए मँजी प्रथा की स्थापना की| उन्होंने अपने आध्यात्मिक साम्राज्य को 22 भागों में बाट दिया| 


उनके हरेक भाग को मँजी कहा जाने लगा| गुरु साहिब ने  हरेक मँजी के श्रद्धालु सिक्ख नियुक्त किया| इन सिक्खों का काम अपने अपने क्षेत्रों में धर्म का प्रचार करना था| सिक्ख गुरु मँजी पर बैठकर लोगों को गुरु साहिब कि तरफ से उपदेश देते थे और बाकी लोग दरी पर बैठकर उन उपदेशों को सुनते थे| धर्म प्रचार की इस संस्था को मँजी प्रथा कहते हैं| 


गुरु साहिब ने सती प्रथा का भी विरोध किया था| उनका मानना था कि उस स्त्री को सती नहीं किया जा सकता जो अपने पति की चिता में जल जाती हैं बल्कि सती वह नारी हैं जो अपने पति के वियोग में अपने प्राण त्याग दे| उन्होंने इस प्रथा का बहुत विरोध किया था| गुरु साहिब ने परदे की प्रथा का भी विरोध किया उन्होंने बुर्का पहनने वाली और परदे में रहने वाली स्त्रियों को बिना पर्दा किये लंगर में सेवा करने तथा संगत में उपसतिथ होने को कहा| गुरु साहिबे ने सिक्खों को नए ढंग से त्योहार मनाने को कहा उन्होंने सिक्खों को केवल तीन त्योहार बैसाखी , माघी और दिवाली मनाने को कहा| इन तीनों त्योहारों के अवसरों पर सिक्खों को गुरु के स्थान पर पहुचना होता था|


 गुरु साहिब ने सिक्खों में इस तरह सामाजिक मेल जोल की भावना का प्रसार किया| गुरु अमरदास जी ने विवाह , मौत और जन्म संबंधी सभी रीतियों में बदलाव किये| उन्होंने कहा कि मौत के अवसर पर पंडितों को नहीं बुलाना चाहिए बल्कि ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए| गुरु अमरदास के काल में ही गुरु रामदास जी ने लावा की रचना की| सिक्ख लोग अब विवाह में वेदों के मंत्रों की जगह अब लावा का पाठ करने लगे| इसी तरह जन्म के समय में सिक्ख आनंद साहिब का पाठ करने लगे| 



गुरु साहिब के गुरु काल में एक महत्वपूर्ण घटना हुई उनके पास एक बार मुग़ल सम्राट अकबर आया था| लंगर संस्था के नियमों के अनुसार उसे पहले सबके साथ बैठकर लंगर खाना पड़ा और उसके बाद उसकी गुरु साहिबे से भेट हुई| अकबर गुरु साहिब के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ , उसने लंगर की संस्था की सराहना करते हुए लंगर का खर्च चलाने के लिए गुरु साहिब को कुछ भूमि भेट की इकछा प्रकट की| लेकिन गुरु साहिब ने इस भेट को लेने से इनकार कर दिया और उन्होंने कहा कि लंगर का खर्च लोगों के चढ़ावे से पूरा किया जाएगा| 


लेकिन फिर भी अकबर ने गुरु साहिब की पुत्री बीबी भानी के नाम कुछ भूमि लगा दी| इसी भूमि पर बाद में अमृतसर का नगर बसाया गया| गुरु अमरदास जी के बाद गुरु रामदास जी के साथ भी अकबर के मैत्रीपूर्ण संबंध रहे| गुरु अमरदास जी 95 वर्ष की उम्र तक सिक्खों पथ प्रदर्शन करते रहे , अपने देहांत से पूर्व उन्होंने गुरु रामदास जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया| गुरु रामदास जी यानि कि भाई जेठा ने और उनकी पत्नी बीबी भानी ने गुरु अमरदास की खूब दिल से सेवा की थी , इसलिए गुरु साहिब ने उन्हे आशीर्वाद दिया कि अब से उनके परिवार से कोई ना कोई सदस्य गुरु गद्दी पर विराजमान होगा| इसके बाद गुरु रामदास जी 1574 ईस्वी में सिक्खों के चौथे गुरु बने| 



तो ये था हमारा आज का लेख गुरु अमरदास जी के ऊपर आपको ये लेख कैसा लगा हमे कमेन्ट बॉक्स में जरूर बताएँ और अपने सुझाव भी हमे कमेन्ट बॉक्स में दे| धनयवाद |

 


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