सिक्खों के दूसरे गुरु अंगद देव जी का इतिहास
गुरु नानक देव जी के बाद सिक्ख धर्म के दूसरे गुरु अंगन्द देव जी थे| गुरु नानक देव जी उनके सामने 1 नारियल और 5 पैसे देकर उन्हे अपना उत्तराधिकारी बना दिया|
गुरु गद्दी प्राप्त करने से पूर्व गुरु अंगद साहिब का नाम भाई लहना पड़ा| उनका जन्म 1504 ईस्वी में मत्ते दी सराई नामक गाँव में हुआ| ये गाँव मुक्तसर से 10 किलोमीटर की दूरी पर सतिथ हैं| उनके पिता का नाम फेरउमल था जो त्रहण जाति के खत्री थे| वह एक छोटे से व्यापारी थे| लहना जी की माता का सभराई देवी था| वह एक नेक और धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी| उनके धार्मिक विचारों का प्रभाव लहना जी पर भी पड़ा| लहना जी के जन्म के बाद वे खडुर को चले गए| वे भी गुरु नानक देव की तरह ही बचपन से ईश्वर भक्ति में लीन रहते थे| उस समय खडूर के ज्यादातर लोग माँ भगवती देवी की पूजा करते थे| वह भी माँ दुर्गा के भक्त बन गए| जब वह 15 वर्ष के हुए तो उनका विवाह मत्ते दी सराई के निवासी देविचन्द की पुत्री बीवी खीवी से कर दिया गया| कुछ समय के उनके घर दो पुत्रों का जन्म हुआ| बड़े बेटे का नाम दातु और छोटे बेटे का नाम दासू था| उनके यहाँ दो कन्याओ का भी जन्म हुआ जिनका नाम बीबी अमरो और बीबी अनोखी था|
भाई लहना जी बचपन से ही माँ भगवती के भक्त थे तो वे हर वर्ष खडुर के कुछ और निवासियों को साथ लेकर कांगड़ा देवी के मंदिर जाया करते थे| एक दिन वे गुरु नानक देव के श्रद्धालु भाई जोधा के संपर्क में आए जो खडुर में निवास किया करते थे| कहते हैं की लहना जी भाई जोधा से आसा दी वार और जपूजी साहिब का पाठ सुन के अत्यंत प्रभावित हो गए| वो गुरु नानक देव के दर्शन करना चाहते थे| अगले वर्ष जब वे ज्वालजी की यात्रा के लिए रवाना हुए तो मार्ग में गुरु नानक देव जी के दर्शन करने के लिए करतारपुर में रुके| गुरु नानक साहिब के वाणी और व्यक्तित्व पर भाई लहना का बहुत प्रभाव पड़ा और उनके शिष्य बन गए और उन्ही के साथ रहने लगे|
गुरु नानक देव जी का शिष्य बनने के बाद वे वही करतारपुर में ही रहने लगे| वह गुरु नानक देव जी बहुत सेवा किया करते थे| एक रात को बहुत भारी बारिश हो रही थी , वो सर्दियों की रात थी , गुरु नानक देव जी ने अपने शिष्यों को घर की दीवार मुरम्मत करने को कहा| उनके आज्ञा का पालन सिर्फ भाई लहना ने ही किया , बाकी किसी भी शिष्य ने उनकी बात नहीं मानी , यहाँ तक की उनके पुत्रों ने भी उनकी बात नहीं मानी| कहा जाता हैं की भाई लहना ने चार बार उस दीवार को बनाया क्युकी हर बार वह दीवार गिर जाती थी| इस घटना के बाद गुरु नानक देव जी को विश्वास हो गया था कि भाई लहना ही गुरु गद्दी के योग्य हैं , उन्होंने उनके सामने एक नारियल और पाच पैसे रखे और उन्हे अपना उत्तराधिकारी चुन लिया और उनका नाम अंगद रखा| गुरु नानक देव जी गुरु अंगद को अपना अंग मानते थे इसलिए उनका नाम अंगद रखा गया|
गुरु अंगद देव जी गुरु गद्दी पर 1539 ईस्वी से 1552 ईस्वी तक विराजमान रहे| उन्होंने बड़े जोरों शोरों से सिक्ख धर्म का प्रचार किया और गुरु नानक देव द्वारा स्थापित की गई संस्थायो का विकास किया| गुरु नानक साहिब ने गुरमुखी लिपि का आविष्कार किया था| और गुरु अंगद देव जी ने इसे संशोधन करके इसे गुरमुखी का नाम दिया| गुरु नानक देव जी समय पंजाब में लंड़ा लिपि प्रचलित थी| यह लिपि दोषपूर्ण थी जिसके बाद गुरु अंगद देव जी ने देवनगिरी लिपि से कुछ शब्द ग्रहण कर इसे संशोधन किया और इसे आधुनिक लिपि का रूप दिया| और इसके बाद अंगद देव ने कुछ शब्दों की रचना स्वयं की जिन्हे बाद में आदि ग्रंथ साहिब में स्थान दिया गया| उन्होंने इसे पवित्रता प्रदान की और इसे सिक्खों में सर्वप्रिय बनाया| यह गुरमुखी अर्थात गुरु के मुख से निकली लिपि समझी जाने लगी|
गुरु अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी की वाणी भी संग्रह की थी| गुरु नानक देव जी ने लंगर की संस्था को जन्म दिया था| गुरु अंगद देव जी ने इस संस्था को ना केवल जारी रखा बल्कि इसे और भी आगे बढ़ाया| खडुर साहिब में प्रतिदिन एक ही रसोई से भोजन तैयार होता था| इसका प्रबंध गुरु साहिब की पत्नी माता खीवी जी को सौंप दिया जाता था| गुरु साहिब के शिष्य बिना किसी वर्ण , जाति के एक साथ बैठकर भोजन करते थे| लंगर का खर्च शिष्यों के चढ़ावे से पूरा किया जाता था| लंगर की संस्था के विकास से जाति प्रथा को बहुत चोट हुई| लंगर की संस्था के विकास से लोगों में एकता की भावना बहुत बढ़ी|
गुरु नानक देव जी ने त्याग के सिद्धांत में अविष्वास प्रगट किया था और उन्होंने उपदेश दिया था कि मनुष्य को ग्रहस्थी का जीवन व्यतीत करना चाहिए| गुरु नानक साहिब के देहांत के बाद उनके बड़े बेटे श्रीचंद ने एक अलग संप्रदाय का निर्माण किया जिसे उदासी मत कहा जाता हैं| इस मत में ब्रह्मचर्य के जीवन और त्याग के पालन पर अधिक बल दिया गया था| इस समय गुरु अंगद देव जी ने सिक्खों से कहा कि जो सिक्ख त्याग में विश्वास रखते हैं वे सिक्ख कहलाने के लायक नहीं हैं| इस तरह गुरु अंगद देव जी ने सिक्ख धर्म के सिद्धांतों की रक्षा की| गुरु अंगद देव जी ने 62 शब्दों की रचना की जिन्हे गुरु अर्जुन देव जी के समय में तैयार किये गए आदि ग्रंथ साहिब में स्थान दिया गया| सिक्खों के आध्यात्मिक विकास के साथ साथ गुरु अंगद देव जी ने उनके शारीरिक विकास की तरफ भी ध्यान दिया| उन्होंने खडुर साहिब में एक अखाड़ा बनवाया जहां उनके सिक्ख व्यायाम करते थे और कुशतिया लड़ते थे|
गोइंदवाल नगर की स्थापना
गुरु अंगद देव जी ने खडुर साहिब से कुछ मील दूरी पर गोइंदवाल नामक नगर की स्थापना की| इस नगर के निर्माण का कार्य 1546 ईस्वी में पूर्ण किया गया| गुरु साहिब ने अपने प्रिय शिष्य गुरु अमरदास को इस कार्य की देख रेख के लिए भेजा| अमरदास जी के काल में यहाँ एक बावली का निर्माण हुआ और गोइंदवाल सिक्खों का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया|
कहा जाता हैं कि शेर शाह सूरी से पराजित होने के बाद हुमाऊ लाहौर की तरफ जा रहा था तो उसने गुरु साहिब से मिलने का सोचा| जिसके बाद वह खडुर साहिब चला गया| मुग़ल सम्राट ने गुरु साहिब से आशीर्वाद लिया| गुरु साहिब ने कहा कि पहले कुछ वर्ष उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा बाद में उसे उसका राज्य मिल जाएगा|
1552 ईस्वी में अपने देहांत से पूर्व अपना उत्तराधिकारी बनाने का सोचा| उन्होंने अपने दो पुत्रों को छोड़कर अपने सबसे आज्ञाकारी शिष्य अमरदास को गुरु गद्दी सौंपी| उनके आगे एक नारियल तथा पाँच पैसे रख कर सिर झुकाया| जिसके बाद गुरु अंगद देव जी के बाद गुरु अमरदास जी सिक्खों के तीसरे गुरु कहलाये| गुरु अंगद देव जी के बाद सिक्खों का नेतृत्व गुरु अमरदास जी ने बहुत सफलतापूर्वक किया|
तो ये था आज का हमारा ब्लॉग गुरु अंगद देव जी के ऊपर अगले ब्लॉग पोस्ट में हम आपको सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास जी के बारे में बताएंगे , और आपको ये ब्लॉग पोस्ट कैसा लगा मुझे कमेन्ट बॉक्स में जरूर बताएँ | धन्यवाद |
बंगाल में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित करने वाला युद्ध
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें