सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

जानिए किस कारण से सिक्खों के पाँचवे गुरु अर्जुन देव जी को शहीदी मिली |

जानिए किस कारण से सिक्खों के पाँचवे गुरु अर्जुन देव जी को शहीदी मिली |  




 गुरु रामदास जी के बाद उनके सबसे छोटे पुत्र गुरु अर्जुन देव जी गुरु गद्दी पर बैठे| क्युकी गुरु रामदास जी के सब पुत्रों में से केवल गुरु अर्जुन देव जी ही सबसे योग्य थे| गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 15 अप्रैल 1563 ईस्वी को गोइंदवाल में हुआ था| उनके पिता गुरु रामदास जी सोढ़ी जाति के खत्री थे| उनकी माता का नाम बीबी भानी था| वह बहुत ही धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी उनके ही भक्ति का प्रभाव गुरु अर्जुन देव पर भी पड़ा| 




ऐसा माना जाता हैं कि गुरु अर्जुन देव जी बचपन से ही बहुत ही बुद्धिमान बालक थे| वे अपने माता पिता का बहुत सत्कार करते थे| उन्होंने भाई बुड्डा जी से गुरमुखि लिपि सीखी| उन्होंने हिन्दी , फारसी और संस्कृत का भी ज्ञान सीखा| 

गुरु अर्जुन देव जी ने अपने बचपन के पहले 11 वर्ष गोइंदवाल में ही बिताएँ| उसके बाद वो अपने पिता के साथ अमृतसर चले गए थे| गुरु अर्जुन देव जी की पत्नी का नाम गंगा देवी था , जो कि फिल्लौर निवासी कृष्ण चंद की पुत्री थी| बहुत सालों तक गुरु अर्जुन देव जी के घर कोई संतान नहीं हुई लेकिन फिर ईश्वर की कृपा से उनके घर हरगोबिन्द का जन्म हुआ| कहा जाता हैं कि गुरु अर्जुन देव का बड़ा भाई पृथया बहुत ही लोभी किस्म का आदमी था| और उनका एक और भाई महादेव वैरागी था| वो सांसारिक कार्यों में बहुत ही कम रुचि लेते थे| जिसके बाद गुरु रामदास ने अर्जुन देव जी को अपना उत्तराधिकारी बना लिया| गुरु रामदास जी ने अर्जुन देव जी को ही गुरु गद्दी के योग्य समझा क्युकी वे बहुत ही नम्र विचारों के थे और अपने माता पिता कि बहुत सेवा किया करते थे| गुरु रामदास जी ने पिछले गुरुओ की तरह गुरु अर्जुन देव जी के सामने पाँच पैसे और एक नारियल रख कर उन्हे गुरु गद्दी सौंप दी| भाई बुड्डा जी ने उनके माथे पर तिलक लगाया| 



पृथया की शत्रुता 


गुरु गद्दी पर बैठने के बाद गुरु अर्जुन देव को तरह तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा| सबसे पहले उनका अपना भाई पृथया उनसे बहुत ज्यादा जलन की भावना रखता था| वो खुद को गुरु रामदास जी का बड़ा भाई होने के नाते गुरु गद्दी का वास्तविक अधिकारी समझता था| गुरु अर्जुन देव जी के शहीद होने तक वो उनका बहुत बड़ा शत्रु बना रहा| पृथया ने कुछ लोभी मसंदों से गठ - जोड़ कर लिया| उसने जोरदार प्रचार करवाया कि सिक्खों का वास्तविक गुरु पृथया हैं ना कि गुरु अर्जुन देव जी| लेकिन भाई बुड्डा , भाई गुरदास और बहुत से सिक्खों के प्रयत्नों के बाद बहुत से सिक्ख गुरु अर्जुन देव के श्रद्धालु बने रहे| पृथया ने लाहौर के मुग़ल अधिकारी सुलही खान से साठ गाठ कर ली और मुग़ल सम्राट अकबर को शिकायत की कि गुरु अर्जुन देव जी ने पृथया के अधिकार को छीन लिया हैं और खुद गुरु गद्दी पर बैठ गए हैं| अकबर ने जांच पड़ताल के बाद पृथया के लगाए गए आरोप को जूठा बताया| कहा जाता हैं कि पृथया को गुरु अर्जुन देव के विरुद्ध भड़काने में उसकी पत्नी करमो का बहुत बड़ा हाथ था , 


उन दोनों ने मिल कर कई बार अर्जुन देव के पुत्र हरगोबिन्द को मारने की कोशिश की , लेकिन वो असफल रहे| गुरु अर्जुन देव जी ने जब अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण किया तब पृथया ने उनकी नकल करते हुए अमृतसर से कुछ दूरी पर हौर नामक गाँव में एक मंदिर और तालाब का निर्माण करवाया| 1600 ईस्वी में पृथया ने एक अलग संप्रदाय का निर्माण किया जीसे मीणा संप्रदाय कहा जाने लगा| पृथया के बाद उसके पुत्र मेहरबान ने इसका नेतृत्व किया| उसने गुरु नानक देव जी के संबंध में एक जन्म साखी की रचना की जिसे आजकल सबसे महत्वपूर्ण जन्म साखियों में से एक माना जाता हैं| जब गुरु अर्जुन देव जी ने तरनतारन में सरोवर की खुदाई का काम शुरू करवाया तो पृथया ने उनकी नकल करते हुए कुछ ही दूरी पर दुख निवारण नामक तालब की खुदाई का काम शुरू करवाया| गुरु अर्जुन देव जी ने इन सब विरोधों के बावजूद भी सिक्खों का नेतृत्व करते रहे और पृथया के खिलाफ एक पग भी नहीं उठाया| 




गुरु अर्जुन देव जी के खिलाफ उस समय कट्टर मुसलमानों और ब्राह्मणों ने भी बहुत विरोध किया था| उन्होंने उनके खिलाफ कई बार अकबर से शिकायत की थी| लेकिन अकबर धार्मिक सहनशीलता की नीति का पालन करता था इसलिए उसने गुरु अर्जुन देव जी के खिलाफ कोई कारवाही नहीं की| लेकिन अकबर की मौत के बाद उसके पुत्र जहांगीर के कान कट्टरपंथियों ने बहुत भरे जिसके कारण बाद में गुरु अर्जुन देव को शहीद कर दिया गया| कहते हैं कि गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी के पीछे लाहौर के दीवान चंदुशाह का बहुत बड़ा हाथ था| इसका असल में कारण ये था कि चंदुशाह अपनी पुत्री का विवाह गुरु साहिब के पुत्र हरगोबिन्द से करवाना चाहता था| चंदुशाह ने सिक्खों के विरुद्ध कुछ बुरे भले शब्द कहे थे इसलिए सिक्खों के कहने पर गुरु अर्जुन देव जी ने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया| जिसके बाद चंदुशाह गुरु साहिब के खिलाफ हो गया और उसने मुग़ल सम्राट के कान भरने शुरू कर दिए|  गुरु अर्जुन देव जी 1581 ईस्वी से 1601 ईस्वी तक गुरु गद्दी पर विराजमान रहे| इस दौरान उन्होंने बहुत से धार्मिक कार्य किये| 


अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण 


गुरु रामदास जी ने अमृतसर नगर की नींव रखी| उन्होंने वहाँ पर अमृतसर और संतोखसर नामक दो सरोवरों की खुदाई का काम शुरू करवाया, लेकिन वे उसे पूरा नहीं कर पाए थे| गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर के निर्माण का सम्पूर्ण कार्य किया| गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर के बीच में एक मंदिर का निर्माण करवाया जिसका नाम हरिमंदिर साहिब रखा गया, जिसका मतलब हैं 'ईश्वर का मंदिर'| इस मंदिर का नींव पत्थर उस समय के प्रसिद्ध मुस्लिम सूफी फकीर मिया मीर द्वारा 1588 ईस्वी में रखा गया था| इस मंदिर में चार रखे गए थे जो चारों धर्मों के बारे में दर्शाते हैं जिसका मतलब हैं कि ये मंदिर चारों धर्मों के लोगों के लिए खुला हुआ हैं| इस मंदिर को गुरु अर्जुन देव जी ने स्वयं अपनी देख रेख में पूरा करवाया था| हरिमंदिर साहिब का निर्माण 1601 ईस्वी में पूरा हुआ था| सितंबर 1604 ईस्वी में हरिमंदिर साहिब में आदि ग्रंथ रखा गया था| भाई बुड्डा जी को पहला ग्रन्थि नियुक्त किया गया था| अमृतसर में हरिमंदिर साहिब का निर्माण एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना मानी जाती हैं इसके बाद सिक्खों को अपना एक तीर्थ स्थान प्राप्त हो गया|


तरनतारण नगर की स्थापना 


अमृतसर के अतिरिक्त गुरु अर्जुन देव जी ने कई अन्य नगरों तथा सरोवरों का निर्माण किया| 1590 ईस्वी में उन्होंने ब्यास तथा रावी नदी के बीच तरनतारण नगर की स्थापना की| कहा जाता हैं कि जब गुरु साहिब पृथया के षड्यंत्रों से तंग आकर माँझा प्रदेश की यात्रा कर रहे थे तो वे इस प्रदेश के खारा नामक गाँव में कुछ समय के लिए रुके| इस गाँव के निवासियों से कुछ भूमि लेकर उन्होंने सरोवर की खुदाई का काम शुरू करवाया| इस सरोवर का नाम तरनतारण रखा गया जिसका मतलब हैं कि इस सरोवर में स्नान करने वाला इंसान भव सागर से तर जाता हैं और मोक्ष को प्राप्त हो जाता हैं| धीरे धीरे इस जगह के आस पास एक नगर बस गया| 


करतारपुर और हरगोबिंदपुर की नींव 


तरनतारण के निर्माण के बाद गुरु अर्जुन देव जी जालंधर गए जहां उन्होंने 1593 ईस्वी में एक नए नगर की नींव रखी जिसका नाम करतारपुर अर्थात ईश्वर का नगर रखा गया| ये नगर ब्यास और सतलुज नदियों के बीच सतिथ हैं| गुरु साहिब ने यहाँ भी एक सरोवर का निर्माण करवाया जिसका नाम उन्होंने गंगासर रखा| गुरु साहिब ने अपने बेटे हरगोबिन्द जी के जन्म के अवसर पर ब्यास नदी के तट पर हरगोबिंदपुर नामक नगर की नींव रखी| 


मसंद प्रथा का संगठन 


गुरु अर्जुन देव जी ने अपने समय में मसंद प्रथा को नए सिरे से संगठित किया| मसंदों को पहले रामदासिए कहा जाता था लेकिन गुरु अर्जुन देव जी के समय में इन्हे मसंद कहा जाने लगा| मसंद का मतलब होता हैं उच्च स्थान क्युकी सिक्ख संगत में इन्हे उच्च स्थान प्राप्त होता था इसलिए इन्हे मसंद कहा जाने लगा| गुरु अर्जुन देव जी ने अपने समय में मसंदों के लिए कुछ नियम बनाए 

 

1  गुरु साहिब ने सभी सिक्खों को आदेश दिया कि वे अपनी आय का दसवा भाग गुरु के नाम भेट करे| 

2  देश के विभिन्न भागों में मसंद धन को जमा करके वैसाखी के दिन गुरु के कोष में जमा करवाते थे| और जहां तक मसंद नहीं पहुच पाते थे वहाँ वे अपने प्रतिनिधियों को भेज दिया करते थे| मसंद धन तो जमा करते ही थे साथ ही साथ वे अपने धर्म का प्रचार भी किया करते थे| जिसके कारण बहुत से लोग सिक्ख धर्म में प्रवेश कर गए| 

3  गुरु अर्जुन देव जी ने सिक्खों को ये भी आदेश दिया कि वे सिंधु के पार जाकर घोड़ों का भी व्यापार करे जिसके परिणामस्वरूप सिक्खों के पास बहुत से घोड़े होने लगे और वे एक अच्छे व्यापारी बन गए| घोड़ों के व्यापार के परिणामस्वरूप सिक्ख बहुत ही अच्छे घुड़सवार बन गए और बाद में सिक्खों की एक शक्तिशाली सेना बन गई| 



गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी 


अकबर के साथ गुरु अर्जुन देव जी के मैत्रीपूर्ण संबंध थे , क्युकी अकबर धार्मिक विचारों में बहुत ही उदार था| लेकिन अकबर की मौत के बाद जहांगीर गद्दी पर बैठा और वो धार्मिक विचारों में बहुत ही कट्टर था| गुरु साहिब की शहीदी का एक कारण जहांगीर की  धार्मिक कट्टरता भी थी| वो सिक्ख धर्म की बढ़ रही सर्वप्रियता से बहुत ज्यादा परेशान था और किसी भी कीमत पर सिक्खों की शक्ति को कुचलना चाहता था| गुरु साहिब की शहीदी के पीछे दूसरा कारण नकशबंदियों का जहांगीर को गुरु साहिब और सिक्खों के विरुद्ध भड़काना भी था| नकशाबंदियों का मुख्य केंद्र सरहिन्द में था| नकशाबंदियों का जन्मदाता शेख अहमद सरहिन्दी था जो कि बहुत ही कट्टर मुसलमान था उसका विचार था कि हिन्दुओ को दी गई सारी रियायते इस्लाम धर्म के खिलाफ हैं| वो हिन्दुओ को काफिर समझता था| 

सिक्खों के अनुसार गुरु साहिब की शहीदी का मुख्य कारण चंदुशाह की गुरु साहिब के विरुद्ध शत्रुता थी| चंदुशाह पंजाब का रहने वाला था और मुग़ल सरकार की सेवा में लाहौर का दीवान नियुक्त हुआ था| चंदुशाह ने अपनी पत्नी के कहने पर अपनी पुत्री सदा कौर का विवाह गुरु अर्जुन देव जी के बेटे हरगोबिन्द से करने की बात चलाई लेकिन गुरु साहिब ने अपने सिक्खों के कहने पर इस रिश्ते से इनकार कर दिया| इस कारण से चंदुशाह क्रोधित हो उठा और वो गुरु साहिब के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगा| सबसे पहले उसने अकबर के गुरु साहिब के खिलाफ कान भरे लेकिन अकबर बहुत ही उदार राजा था इसलिए चंदू की एक ना चली लेकिन अकबर के बाद जहांगीर राजा बना और चंदुशाह ने उसके कान भरे| सिक्ख परंपरा में चंदुशाह को बहुत हद तक गुरु अर्जुन देव जी शहीदी का जिम्मेदार माना जाता हैं| 


कुछ इतिहासकारों के अनुसार पृथया के कारण भी गुरु साहिब को शहीदी हुई थी| पृथया गुरु अर्जुन देव जी का बड़ा भाई था और वो गुरु गद्दी पर अपना हक समझता था| उसने गुरु साहिब के विरुद्ध षडयंत्र रचने आरंभ कर दिए थे और वो गुरु साहिब के खिलाफ जहांगीर के कान भरा करता था| 

लेकिन गुरु साहिब की शहीदी का तात्कालिक कारण खुसरो का विद्रोह था| खुसरो जहांगीर का सबसे बड़ा पुत्र था| खुसरो ने राजगद्दी पाने के लिए अपने पिता जहांगीर के खिलाफ विद्रोह कर दिया| कहते हैं कि खुसरो गोइंदवाल में गुरु साहिब से मिला था और गुरु साहिब ने उसे तिलक लगाकर विजय होने का आशीर्वाद दिया था| लेकिन आज कल के बहुत से इतिहासकार इस चीज को जूठा मानते हैं| उस समय जहांगीर लाहौर में था और वो खुसरो के पीछे पीछे ही लाहौर पहुंचा था| उस समय बहुत से धार्मिक कट्टरवादियों ने गुरु साहिब के खिलाफ जहांगीर के कान भरे| इसके बाद जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव जी को दंड देने का फैसला किया| 

गुरु अर्जुन देव जी की अपराध की जांच पड़ताल किये बगैर ही जहांगीर ने उन्हे दंड देने का सोच लिया| गुरु अर्जुन देव जी के ऊपर तरह तरह के अत्याचार किये गए उन्हे गरम तवे के ऊपर बिठाया गया उसके बाद उनके ऊपर उबलता हुआ पानी डाला गया फिर उनके ऊपर गरम रेत डाली गई| गुरु साहिब की शहीदी जून 1606 ईस्वी में हुई थी| गुरु साहिब की इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण घटना मानी जाती हैं क्युकी इसके बाद सिक्खों ने अन्याय के खिलाफ तलवारे उठा ली| गुरु हरगोबिन्द जी के समय में तो सिक्खों और मुग़लों के बीच बहुत से युद्ध भी हुए थे| इस घटना के बाद मुग़लों और सिक्खों में शत्रुता बढ़ गई और सिक्खों में भी इस घटना के बाद बहुत ज्यादा एकता आ गई थी| 


तो ये था आज का इतिहास गुरु अर्जुन देव जी के ऊपर आपको ये ब्लॉग पोस्ट कैसा लगा हमे कमेन्ट बॉक्स में जरूर बताएँ और अगली पोस्ट में हम आपको गुरु हरगोबिन्द जी का इतिहास बताएंगे| धन्यवाद | 


सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास जी का इतिहास

सिक्खों के दूसरे गुरु अंगद देव जी का इतिहास

सिक्खों के पहले गुरु नानक देव जी का इतिहास



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जानिए सिक्खों के सबसे कम उम्र के गुरु हरकृष्ण जी का इतिहास|

 सिक्खों के आठवें गुरु हरकृष्ण जी का इतिहास | History of guru harkrishna ji  गुरु हरराय जी के देहांत के बाद गुरु हरकृष्ण जी सिक्खों के आठवे गुरु बने| जब वे गुरु बने तब उनकी उम्र मात्र 5 वर्ष की थी|  उनका जन्म 7 जुलाई 1656 ईस्वी को कीरतपुर में हुआ था| उनके पिता का नाम गुरु हरराय था और माता का नाम सुलखनी देवी था| हमने अपने पिछले ब्लॉग में बताया हैं कि गुरु हरराय जी अपने बड़े पुत्र रामराय के ववहार से दुखी से इसलिए उन्होंने अपने छोटे पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाया था| सिक्ख इतिहास में उन्हे बाल गुरु कहा जाता हैं क्युकी वो पाँच वर्ष की आयु में गुरु बने थे| कहा जाता हैं उस आयु में भी उनमें असाधारण योग्ता और आध्यात्मिक शक्ति विद्यमान थी|  रामराय अपने छोटे भाई का गुरु गद्दी पर बैठना सहन नहीं कर सका| गुरु हरराय का बड़ा पुत्र होने के नाते वो गुरु गद्दी पर अपना हक समझता था| उसने बहुत से स्वार्थी मसंदों के साथ साठ गाठ करली और अपने आपको गुरु घोषित कर लिया| लेकिन सिक्खों ने रामराय को गुरु मानने से इनकार कर दिया| रामराय अब दिल्ली चला गया और औरंगजेब के पास गुरु हरकृष्ण के विरुद्ध शि...

आखिर पल्लव कौन थे और कहाँ से आए थे

आखिर पल्लव कौन थे और कहाँ से आए थे  पल्लव कौन थे और कहा से आए , इस संबंध में काफी विवाद हैं| क्युकी दक्षिण भारत की परंपरागत शक्तियों में चेर , चोल और पाण्ड्य का नाम आता हैं , इसलिए कुछ लोग पल्लवों को विदेशी मानते हैं और ऐसे लोगों का विश्वास हैं की ये लोग पार्थिव की शाखा थे| दूसरा सिद्धांत ये हैं की वे सुदूर दक्षिण के आदिवासी थे और कुरुंब , कल्लर तथा अन्य हिंसक जातियों से उनका संबंध था| इन लोगों को संगठित कर पल्लवों ने अपने आपको शक्तिशाकी बनाया था| संगम साहित्य में पल्लवों को तोनडेयर कहा गया हैं| कृषणस्वामी आयंगर के अनुसार वे लोग उन नाग राजाओ के वंशज थे , जो सातवाहनों के सामंत थे|  भूतपूर्व सातवाहनों के दक्षिण पूर्व में पल्लवों ने अपनी राजधानी कांचीपुरम में बनाई| विदेशी पल्लव से उनकी तुलना की जा सकती हैं| इस संबंध में कहा जाता हैं की जब नंदिवर्माण द्वितीय सिंहासन पर बैठा तब उसे हाथी के आकार का ताज दिया गया , जो डैमेट्रियस के ताज की याद दिलाता हैं| ऐसा भी कहा जाता हैं की पल्लव पहले उत्तर के निवासी थे जो बहुत पहले दक्षिण में जाकर बस गए और जिन्होंने दक्षिण की परम्पराओ को अपना लिया...