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सिक्खों के दसवें और आखिरी गुरु गोबिन्द देव जी का इतिहास

सिक्खों के दसवें और आखिरी गुरु गोबिन्द देव जी का इतिहास 


गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के दसवे और आखिरी गुरु थे| गुरु नानक देव जी ने सीखो धर्म की स्थापना की थी और उनके उत्तराधिकारिओ के समय में इसका विकास होता रहा और गुरु गोबिन्द सिंह जी ने इस धर्म को आखिरी रूप दिया| 


जन्म 


गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 22 दिसम्बर 1675 ईस्वी को आधुनिक बिहार प्रांत के पटना में हुआ था| उनके पिता का नाम तेगबहादुर और माता का नाम गुजरी देवी था| वे माता पिता के इकलोते पुत्र थे| अपनी पत्नी गुजरी , माता नानकी और अपने कृपाल चंद को पटना में छोड़ कर गुरु साहिब आगे ढाका की यात्रा पर चले गए थे| जन्म के बाद पाँच वर्ष तक गोबिन्द दास ने पटना में ही अपना जीवन बिताया| गोबिन्द दास का बचपन पंजाब के षड्यंत्रों से दूर पटना में बीता था , इस कारण से उनमें निडरता और नेक बालक के रूप में विकास हो सका था| कहा जाता हैं कि बचपन में ऐसी खेल खेला करते थे कि उनके महान राजा बनने के लक्षण दिखाई देते थे| 1671 ईस्वी में गोबिन्द राय जी और उनके माता जी पटना को छोड़ कर लखनौर में पहुच गए| यहाँ गोबिन्द राय जी की दस्तार बंधन की रस्म थी| उनके मामा महरचंद ने उन्हे हरे रंग की पगड़ी पहनाई| इस अवसर पर उन्हे वस्त्रों को शस्त्रों से सजाया गया| 


शिक्षा 


1672 ईस्वी में गुरु तेगबहादुर जी अपने परिवार सहित चक नानकी आ गए| गोबिन्द राय जी को भाई साहिब चंद और भाई सती दास ने शिक्षा दी| पंडित हरजस से उन्होंने संस्कृत भी सीखी| बज़्र सिंह राठोर नामक राजपूत ने उन्हे घुड़सवारी और अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया| हमने आपको पिछले ब्लॉग में तेगबहादुर जी के इतिहास में बताया था कि कैसे तेगबहादुर जी को शहीदी प्राप्त हुई थी| अगर आपने वो पोस्ट नहीं देखा हैं हैं अभी देख लीजिए आपको गुरु गोबिन्द सिंह जी का इतिहास और भी अच्छे तरीके से समझ में आ जाएगा| गुरु तेगबहादुर जी ने अपनी शहीदी से पूर्व गोबिन्द राय जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया|

 पीछे चली आ रही विधि के अनुसार उन्होंने अपने पुत्र के आगे 1 नारियल और पाँच पैसे रख दिए| गुरु गोबिन्द राय जी ने तीन विवाह किये थे , उनका पहला विवाह 1677 ईस्वी में लाहौर निवासी हरजस की पुत्री जीतो जी हुआ था| उनका दूसरा विवाह सुंदरी नामक दूसरी कन्या से हुआ था| जीतो जी के देहांत के बाद गुरु साहिब ने साहिब देवी नाम की तीसरी कन्या से विवाह किया था| गुरु साहिब ने ये विवाह इस शर्त पर किया था कि विवाह के बाद साहिब कौर कुवारी की तरह रहेंगी| इसलिए साहिब कौर को कवारा डोला कहा जाता हैं| 


1675 ईस्वी में जब गुरु साहिब गुरु गद्दी पर बैठे तो उनकी उम्र सिर्फ 9 वर्ष की थी| सिक्ख धर्म को उस समय बाहरी और आंतरिक खतरों का सामना करना पड़ा| इस भयानक अवस्था में गुरु साहिब के मामा कृपाल सिंह ने गुरु साहिब के संगरक्षक के रूप में काम किया| कृपाल चंद एक बहुत ही बुद्धिमान और दूरदर्शी सिक्ख था जो कि गुरु हरगोबिन्द के समय से ही सिक्ख गुरुओ का स्वामिभक्त रहा था| उन्होंने अगले नो वर्षों तक गुरु साहिब और उनके परिवार के संगरक्षक का कार्य किया| 

सिक्ख धर्म की रक्षा के लिए कृपाल चंद ने गुरु साहिब के लिए सेना का संगठन करना जरूरी समझा| जिसके बाद गुरु साहिब की तरफ से घोषणा की गई कि जिनके चार पुत्र हैं उनमें से वे दो पुत्रों को सेना में भर्ती करवा दे| इसके बाद वे लोग जिन्होंने हरगोबिन्द जी के साथ युद्धों में भाग लिया था , गुरु साहिब के पास टोलिया बना कर आने लगे| जल्दी ही गुरु साहिब के पास बहुत से सिक्ख सेना में भर्ती हो गए| अपने दादा हरगोबिन्द जी की तरह ही उन्होंने भी शस्त्र धारण करना शुरू कर दिया| वे पगड़ी के साथ कलगी भी लगाया करते थे| वे शिकार खेलने भी जाया करते थे| माखोवाल में गुरु साहिब की गतिविधियों के कारण उनका कहलूर के राजा भीम चंद से झगड़ा हो गया| 

लड़ाई का तात्कालिक कारण एक हाथी को लेकर था| असम के राजा रत्न राय ने गुरु साहिब को एक बहुत ही सुन्दर सफेद हाथी दिया जिसका नाम प्रसादी था| उसके बाद काबुल के दूनी चंद नामक सिक्ख ने गुरु साहिब को अपना दरबार लगाने के लिए एक सुन्दर और बहुमूल्य खेमा भेट किया| शीघ्र ही भीम चंद मखोवाल आया| गुरु साहिब ने उसका उसका एक बहुत बड़े दरबार में स्वागत किया| वह गुरु साहिब के दरबार की ठाठ बाठ और सफेद हाथी देखकर गुरु साहिब से जलने लगा| कुछ समाके बाद भीम चंद के पुत्र की सगाई गढ़वाल के राजा फतेह शाह की पुत्री के साथ होनी निश्चित हुई|

 इस अवसर पर भीम चंद ने गुरु साहिब से उनका सफेद हाथी कुछ दिनों के लिए उधार मांगा| गुरु साहिब के मना करने पर भीम चंद ने अपनी सेना सहित माखोवाल पर आक्रमण कर दिया| गुरु साहिब के सिक्खों ने भीम चंद के सैनिकों को पराजित करके वहाँ से भगा दिया| इस लड़ाई के समय गुरु साहिब उम्र केवल  16 वर्ष की थी| 


गुरु साहिब अब भीम चंद के साथ और युद्ध नहीं करना चाहते थे , क्युकी वे ऐसे युद्ध में अपनी सैनिक शक्ति दुर्बल नहीं करना चाहते थे| वे किसी सुरक्षित स्थान पर कुछ वर्षों तक बड़े पैमाने पर मुग़लों के विरुद्ध सैनिक तैयारिया करना चाहते थे| जब वे ऐसा सोच ही रहे थे कि नाहन के राजा मेदिनी प्रकाश ने उन्हे अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया| नाहन राज्य के प्रदेश में यमुना नदी के तट पर गुरु साहिब एकांत स्थान चुना और वहाँ निवास करने का निश्चय किया| 

उस स्थान पर गुरु साहिब के सिक्खों तथा राजा मेदिनी प्रकाश के आदमियों के परिणाम के फलस्वरूप एक दुर्ग ना निर्माण किया जिसका नाम पोंटा रखा गया| पोंटा का मतलब हैं पाँव रखने का स्थान| वह नाहन से लगभग 43 किलोमीटर दूर हैं| 


अपने सिक्खों को मानसिक रूप से तैयार करने के साथ साथ गुरु साहिब ने उनकी शारीरिक उनन्ति की तरफ भी ध्यान दिया| उन्होंने सिक्खों को घुड़सवारी करने , तीन कमान चलाने और तलवार का प्रयोग करने की शिक्षा दी | गुरु साहिब अपने सिक्खों के साथ शिकार खेलने भी जाया करते थे| गुरु साहिब के पास पठानों की भी लगभग 500 सैनिक हो गए| इन पठान सैनिकों को मुग़लों ने अपनी सेना से निकल दिया था| 



भंगानी की लड़ाई 1688 ईस्वी 


गुरु साहिब की सैनिक गतिविधियों से पर्वर्तीय राजाओ को ये लगने लगा कि गुरु साहिब एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते हैं| वे गुरु साहिब की गतिविधियों को अपने राज्य के लिए खतरा समझने लगे थे| इसके बहुत से कारण भी थे जेसे कि गुरु साहिब मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते थे और पहाड़ी राजा हिन्दू थे और वे मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे| पहाड़ी राजा ये नहीं चाहते थे कि गुरु साहिब और मुग़लों के युद्ध के कारण उनका राज्य युद्धों का अखाड़ा बन जाए| एक कारण ये भी था कि भीम चंद ने भी बहुत से पहाड़ी राजाओ को  गुरु साहिब के विरुद्ध उकसाया था| लेकिन लड़ाई का तात्कालिक कारण कुछ और था|


ये कारण राजा भीम चंद के पुत्र अजमेर चंद का राजा फतेहशाह की पुत्री के साथ विवाह से संबंधित था| कहा जाता हैं कि जब बाराती नाहन से गढ़वाल को जा रहे थे तो सिक्खों ने पोंटा से उन्हे गुजरने नहीं दिया और बरातियों को दूसरे मार्ग से जाने के लिए विवश किया| गुरु साहिब ने दीवान नन्द चंद के हाथ फतेहशाह के पुत्री के लिए विवाह के अवसर पर सवा लाख रुपए की बहुमूल्य भेट भेजी लेकिन भीम चंद के कहने पर राजा फतेहशाह ने उनकी भेट अस्वीकार कर दी| 

अब वहाँ पर जीतने पहाड़ी राजा थे सभी ने मिल कर गुरु साहिब से लड़ने का निश्चय किया| इनमें से महत्वपूर्ण राजा थे - गढ़वाल का राजा फतेह सिंह , बिलासपुर का राजा भीम चंद , कांगड़ा का राजा कृपाल चंद , गुलेर का राजा गोपाल चंद , जसवाल का राजा केसरी चंद , कोटगढ़ का राजा दयाल चंद आदि| 


गुरु साहिब ने पहाड़ी राजाओ के साथ युद्ध करने के लिए यमुना और इसकी शाखा गिरी के बीच भंगानी नामक स्थान को उचित समझा जोकि पोंटा से लगभग 10 किलोमीटर दूर हैं| युद्ध शुरू होने से पहले उनके अधिकतर पठान सैनिक शत्रुओ से जा मिले| परंतु इस समय पीर बुदहूशह अपने चार पुत्रों और 700 अनुयायी सहित गुरु साहिब के साथ आ मिले| 22 सितंबर 1688 ईस्वी को एक घमासान लड़ाई हुई

 जो कि 9 घंटों तक चलती रही| गुरु साहिब ने इस युद्ध में पहाड़ी राजाओ के बहुत से सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और उनके सिक्खों ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता के जौहर दिखाए थे| गुरु साहिब के अनुसार उन्होंने खुद राजा हरिचन्द जो कि एक बहादुर नवयुवक था का खुद काम तमाम किया था| पठान सेनानायक जो कि गुरु साहिब को दोखा दे के शत्रुओ से मिल गए थे , इस युद्ध में मारे गए| गुरु साहिब के भी बहुत से सिक्ख इस युद्ध में मारे गए लेकिन अंत में उन्हे शानदार विजय प्राप्त हुई| पहाड़ी राजाओ को इस युद्ध से बहुत नुकसान हुआ और उन्हे डर कर भागना पड़ा| 



नादौन की लड़ाई 


भंगानी की लड़ाई के बाद भीम चंद और बहुत से पहाड़ी राजाओ से गुरु साहिब से मित्रता कर ली| और मित्रता करने के बाद उन्होंने मुग़ल सरकार को कर देना बंद कर दिया| इन राजाओ ने भीम चंद के नेतृत्व में एक संघ बना लिया| जम्मू के मुग़ल सूबेदार मिया खां ने कर ना देने पर पहाड़ी राजाओ के विरुद्ध 1690 ईस्वी में आलिफ़ खां के नेतृत्व में अभियान भेजा| कांगड़ा के समीप नादौन नामक स्थान पर लड़ाई हुई| इस लड़ाई में कांगड़ा के शासक कृपाल चंद ने आलिफ़ खां का साथ दिया| 

गुरु साहिब ने पहाड़ी राजाओ के पक्ष में युद्ध किया| इस लड़ाई में गुरु साहिब और उनके सिक्खों ने अद्भुत वीरता के जौहर दिखाए| जिसके बाद आलिफ़ खां को पराजित होकर भागना पड़ा| लेकिन इस युद्ध के बाद भीम चंद ने गुरु साहिब से पूछे बिना आलिफ़ खां से गुप्त संधि कर ली और मुग़ल सरकार को वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया| गुरु साहिब ने अब ये अनुभव किया कि वो अब भीम चंद की मित्रता पर निर्भर नहीं रह सकते| 


जब मुग़ल सम्राट औरंजेब को गुरु साहिब की बढ़ती हुई शक्ति का पता चला तो उन्होंने पंजाब के मुग़ल फ़ौजदारों को गुरु साहिब के विरुद्ध कारवाही करने का आदेश दिया| बहुत से सूबेदारों ने गुरु साहिब को हराने का प्रयत्न किया , लेकिन वे सब विफल रहे| 


1699 ईस्वी में गुरु साहिब ने खालसा की स्थापना की| सिक्ख परंपरा में इसे एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिन माना जाता हैं| खालसा की स्थापना से सिक्ख धर्म को अंतिम रूप दिया गया| इससे पहले जो कुछ भी हुआ वह खालसा की स्थापना की तैयारी थी , और खालसा की स्थापना इसका परिणाम थी| खालसा शब्द अरबी भाषा के शब्द खालस से लिया गया हैं , जिसका मतलब हैं शुद्ध | मध्यकाल में खालसा शब्द सरकार के अधीन भूमि के लिए प्रयोग किया जाता था| 

1699 ईस्वी में वैसाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह साहिब ने आनंदपुर में एक महासम्मेलन आयोजित किया| इस सम्मेलन में विभिन्न प्रदेशों से लगभग 80000/- लोग जमा हुए| जब सभी लोग बैठ गए , तब गुरु गोबिंग सिंह जी ने अपनी म्यान से तलवार निकाली और कहा कि आप में से कोई ऐसा व्यक्ति हैं जो अपने धर्म के लिए अपने प्राण दे सकता हैं| जब ये शब्द तीसरी बार दोहराए गए तब लाहौर का निवासी दयाराम अपने स्थान से उठकर गुरु साहिब की तरफ बढ़ा और उसने कहा कि वो धर्म के लिए अपने प्राण दे सकता हैं|

 गुरु साहिब उसे अपने साथ खेमे में ले गए , और कुछ देर बाद बाहर आने के बाद एक और बलिदान मांगा| इस बार दिल्ली के जाट धर्मदास ने अपने आप को प्रस्तुत किया , गुरु साहिब उसे भी खेमे में ले गए और थोड़ी देर बाद बाहर आए| उन्होंने जितनी बार भी बलिदान मांगा कोई ना कोई हाजिर हो जाता था| इस तरह से गुरु साहिब ने पाँच लोगों को चुन लिया था| दयाराम और धर्मदास के अतिरिक्त तीन और व्यक्ति थे - द्वारिका का मोहकमचंद जोकि धोबी था , बीदर का साहिब चंद जोकि नाई था और जगगनाथ का हिम्मतराई जोकि कहार था| कुछ समय के बाद गुरु साहिब ने इन पांचों व्यक्तियों को सुन्दर केसरी रंग के वस्त्र पहना के भरे सम्मेलन में आए| गुरु साहिब ने स्वयं भी वैसे ही वस्त्र पहने थे| लोग इन पाँच व्यक्तियों को देख कर बहुत हैरान हुए| गुरु साहिब ने उन्हे पाँच प्यारो की सामूहिक उपाधि दी| आनंदपुर के इस सम्मेलन में भारत के चारों दिशाओ से लोग जमा हुए थे , क्युकी दयाराम और धर्मदास तो उत्तरी भारत के थे लेकिन बाकी तीन सिक्ख पक्षिमी और दक्षिणी भारत के थे| 


खंडे का पाहुल 


इससे पहले चरण का पाहुल द्वारा किसी व्यक्ति को गुरु का शिष्य बनाया जाता था , गुरु के चरण से छुआ के पानी को शिष्यों को पिलाया जाता था| लेकिन अब गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खंडे का पाहुल से लोगों को अपने शिष्य बनाया| एक लोहे के बर्तन में साफ पानी और बताशे डाल कर उसे खंडे यानि कि दो धारी तलवार से हिलाया जाता था और साथ ही जपूजी साहिब का पाठ किया जाता| इस प्रकार तैयार किये गए खंडे का पाहुल को लोगों को सिक्ख बनाया जाता हैं| 


गुरुवाणी के पाठ के दो धारी तलवार के साथ तैयार किये गए इस मीठे अमृत का अभिप्राय ये हैं कि इसका सेवन करने वालों में गुरुवाणी में दृढ़ विश्वास , वीरता और मधुरता के गुण उत्पन्न हो| गुरु साहिब ने पाँच प्यारो को अमृत पिलाने के बाद उन्हे खालसा का नाम दिया| पाँच प्यारो को खंडे का सेवन कराने के बाद उन्होंने खुद भी उसका सेवन किया , जिसके बाद उन्हे गुरु गोबिन्द राय से गुरु गोबिन्द सिंह कहा जाने लगा| जिन भी लोगों ने इस खंडे के पाहुल का सेवन किया उन्होंने अपने नाम के साथ सिंह लगाया| 


खालसा की स्थापना के बाद गुरु साहिब ने खालसा के कर्तव्यों के बारे में नियम बनाए| जैसे कि 


1 खालसा में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को खंडे के पाहुल का सेवन करना जरूरी होगा| 


2 खालसा में प्रवेश करने के बाद प्रत्येक पुरुष को अपने नाम के साथ सिंह लगाना होगा| सिंह का अर्थ शेर होता हैं|


3 वह सिक्ख पाँच ककार यानि कि क अक्षर से शुरू होने वाले पाँच चिन्ह - केश , कंघा , कच्छा , कडा और कृपाण धारण करेगा| 


4 वह एक सर्वोच ईश्वर की भक्ति करेगा और किसी भी देवी देवता में विश्वास नहीं रखेगा और मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखेगा| 


5 वह परिश्रम करके अपनी रोजी रोटी कमाइगा और अपनी आय का दसवा भाग धर्म के लिए दान करेगा| 


6 वह तंबाकू का प्रयोग नहीं करेगा| वह अस्त्र शस्त्र धारण करेगा और धर्म युद्ध लड़ने के लिए सदा तैयार रहेगा| खालसा के सदस्य एक दूसरे से मिलते समय वाहि गुरु जी का खालसा , वाहि गुरु जी की फतेह कह कर संबोधित करेंगे|  


7 खालसा के लोग जात पात में विश्वास नहीं रखेंगे| 


गुरु साहिब ने मीणों , धीरमलिओ , रामराईओ और भ्रष्टाचारी मसंदों को खालसा में शामिल होने की आज्ञा नहीं दी| उन्होंने खालसा के सदस्यों को भी इनसे कोई संबंध ना रखने की आज्ञा दी| 


आनंदपुर साहिब की लड़ाई 1701 ईस्वी 


 खालसा की स्थापना के दो वर्ष के बाद गुरु गोबिन्द सिंह जी को पहाड़ी राजाओ के खिलाफ हथियार उठाने पड़े| इस लड़ाई का कारण ये था कि खालसा की स्थापना से सभी राजा घबरा गए थे| इसलिए उन्होंने गुरु साहिब की शक्ति को कुचल देना चाहते थे| इसलिए सिक्खों को पहाड़ी क्षेत्रों से बाहर निकालने का निश्चय किया| बिलासपुर के राजा भीम चंद ने गुरु साहिब को अपने दूत द्वारा पत्र भेजा जिसमें कहा गया कि या तो वे आनंदपुर छोड़ दे या जितना समय वहाँ रहे उसका किराया दे| 


गुरु साहिब ने इस मांग को अनुचित समझते हुए अस्वीकार कर दिया| राजा भीम चंद और कुछ अन्य पर्वतीय राजाओ की सेनाओ ने 1701 ईस्वी में आनंदपुर साहिब के चारों तरफ घेरा डाल दिया और दुर्ग के अंदर जाने रसद पहुचने के सभी मार्ग रोक लिए| गुरु साहिब ने अपनी सैनिकों की कम संख्या होने के बावजूद भी दुर्ग के अंदर से डटकर

शत्रुओ का विरोध किया| साहिबजादा अजित सिंह ने जिसकी आयु उस समय केवल 14 वर्ष थी , बड़ी ही शूरवीरता का प्रमाण दिया| लड़ाई कई दिनों तक चलती रही|  पहाड़ी राजाओ को जब कोई सफलता नहीं मिली तो उन्होंने गुरु साहिब के साथ समझौता करने का सोचा| उन्होंने वचन दिया कि यदि वे कुछ समय के आनंदपुर छोड़ दे तो वे गुरु साहिब के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित कर लेंगे| गुरु साहिब ने जो कि शुरू से ही पहाड़ी राजाओ के साथ युद्ध करने के पक्ष में नहीं उनकी शर्त को मान लिया| जिसके बाद वे कीरतपुर से कुछ दूर निर्मोह नामक स्थान पर रहने लगे| 


निर्मोह की लड़ाई  1702 ईस्वी 


जब गुरु साहिब निर्मोह चले गए तो उनकी आस पास के गांवों के लोगों से झड़पे होनी लगी| सिक्ख से डर कर बहुत से लोग अपने घरों को छोड़कर दूसरे गांवों और जंगलों में जाने लगे| राजा भीम चंद ने यह अनुभव करते हुए कि सिक्खों की शक्ति का दमन करना कठिन हैं उन्होंने मुग़लों की सहायता ली| 1702 ईस्वी के आस पास निर्मोह को एक स्थान से भीम चंद ने और दूसरी स्थान से मुग़लों ने घेर लिया| इस लड़ाई में आस पास के गुर्जरों ने भी आक्रमनकारिओ का साथ दिया| सिक्खों ने बड़ी वीरता से शत्रुओ का सामना किया| अंत में सिक्खों ने शत्रुओ को भाग जाने पर मजबूर कर दिया| 


अब सिक्खों ने निर्मोह को छोड़कर सतलुज पार बसोली जाने का सोचा| 


बसोली की लड़ाई 1702 ईस्वी 


सतलुज नदी को पार करके गुरु साहिब और उनके सिक्ख बसोली चले गए| कहा जाता हैं कि बसोली के राजा ने उन्हे अपने पास आने का निमंत्रण दिया| भीम चंद ने यहाँ भी गुरु साहिब के सिक्खों पर आक्रमण किया लेकिन सिक्खों ने उसे हरा कर भगा दिया| इसके सिक्खों ने भीम चंद के प्रदेशों पर आक्रमण करने शुरू किये| इन परिस्थियों में उसने गुरु साहिब से संधि कर ली| इसके बाद गुरु साहिब फिर आनंदपुर आ गए| इस संधि के बाद गुरु साहिब ने दो वर्षों तक कोई युद्ध नहीं लड़ा| 


आनंदपुर साहिब की दूसरी लड़ाई 1704 ईस्वी 


गुरु साहिब की बढ़ती हुई शक्ति को देख कर पहाड़ी राजाओ ने फिर से गुरु साहिब पर आक्रमण करने का सोचा| पहाड़ी राजाओ ने एक साथ मिलकर आनंदपुर पर आक्रमण कर दिया| गुरु साहिब ने अपने सिक्खों की सहायता से पहाड़ी राजाओ को भाग जाने पर मजबूर कर दिया| इसलिए पहाड़ी राजाओ ने मुग़ल सम्राट औरंगजेब से गुरु साहिब के विरुद्ध कारवाई करने को कहा| औरंगजेब ने तुरंत लाहौर के सूबेदार और सरहिन्द के सूबेदार को गुरु साहिब के विरुद्ध कारवाही करने को कहा| 

पहाड़ी राजाओ और मुग़लों की विशाल सेना ने आनंदपुर पर आक्रमण कर दिया| सिक्खों ने दुर्ग के अंदर से शत्रुओ पर आक्रमण किया और उनके पहले आक्रमण को विफल कर दिया| आक्रमनकारिओ ने आनंदपुर को चारों तरफ से घेर लिया और अंदर जाने के सभी मार्ग रोक लिए| दुर्ग के अंदर रसद ना होने के कारण सिक्खों के लिए अधिक समय तक युद्ध करना असंभव हो गया| गुरु साहिब के चालीस सिक्ख उन्हे बेदावा लिखकर गुरु साहिब का साथ छोड़कर भाग गए| जब दुर्ग के अंदर सिक्ख भूख प्यास से तड़पने लगे तो गुरु साहिब ने मजबूरी में माता गुजरी के कहने पर आनंदपुर साहिब को छोड़ कर चले गए| 


शाही टिबबी की लड़ाई 


गुरु साहिब के आनंदपुर दुर्ग को छोड़ने के बाद शत्रुओ ने उसे अपने अधिकार में ले लिया| शत्रुओ ने सिक्खों का पीछा करना शुरू किया , गुरु साहिब ने भाई उदय सिंह के नेतृत्व में 50 सिक्खों को शत्रुओ को रोकने का काम दिया| शाही तिब्बी नामक स्थान पर उदय सिंह ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों सहित शत्रुओ की विशाल सेना पर आक्रमण किया| सिक्खों ने बड़ी शूरवीरता से शत्रुओ का सामना किया और उदय सिंह समेत 50 सिक्ख इस युद्ध में शहीद हो गए| 





सरसा की लड़ाई 


जब गुरु साहिब और उनके साथी सरसा नदी के तट पर पहुचे तो उन्हे शत्रुओ की सेना उनका पीछा करते हुए तेजी से आ रही हैं| गुरु साहिब ने अपने रंगरेटे सिक्ख भाई जीवन सिंह को 100 सिक्खों सहित शत्रुओ की सेना को रोकने का आदेश दिया| सरसा नदी के किनारे भाई जीवन सिंह के नेतृत्व में सिक्खों ने शत्रुओ का विरोध किया| उन्होंने शत्रुओ को बहुत हानी पहुचाई लेकिन इस लड़ाई में वे सभी शहीद हो गए| उस समय सरसा नदी में बाढ़ आई हुई थी| गुरु साहिब और उनके सिक्ख घोड़े समेत नदी में कूद पड़े| बहुत से सिक्ख नदी में डूब कर मर गए| इस भगदड़ में बहुत से सदस्य गुरु साहिब से बिछड़ गए| 


सरसा को पार करने समय भगदड़ मच जाने के कारण गुरु साहिब की माता गुजरी जी और उनके दो साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह उनसे अलग हो गए| वे दोनों सिहोड़ी चले गए| जहां उन्हे कोतवाल के हवाले कर दिया गया और उसके बाद सिरहिंद भेज दिया गया| सिरहिंद के फौजदार ने इन बालकों को इस्लाम काबुल करने लिए कहा और उनके इनकार करने पर उन्हे जिंदा दीवार में चुनवा दिया गया| माता गुजरी ने अपने पोतों के शोक में अपने प्राण त्याग दिए| 


 चमकौर साहिब की लड़ाई 1705 ईस्वी 


सरसा नदी को पार करने के बाद गुरु साहिब अपने सिक्खों और दो साहिबज़ादों अजित सिंह और झुझार सिंह सहित चमकौर साहिब पहुँच गए| चमकौर साहिब की लड़ाई में गुरु साहिब के साथ केवल 40 सिक्ख थे| लड़ाई में सिक्खों ने जिस शूरवीरता का प्रमाण दिया उसका इतिहास में बहुत कम ही उदाहरण मिलता हैं| गुरु साहिब स्वयं भी इस लड़ाई में बहुत शूरवीरता के साथ लड़े| दोनों साहिबजादे भी इस लड़ाई में शहीद हो गए और पाँच प्यारो में से तीन प्यारे भी इस लड़ाई में शहीद हो गए|

 अंत में गुरु साहिब जी के चालीस में से केवल पाँच सिक्ख ही जीवित रह गए| उन पांचों ने गुरु साहिब से प्राथना की कि उन्हे अपनी जान बचाने के लिए इस गढ़ी को छोड़ देना चाहिए| गुरु साहिब ने उनकी बात मान ली और उनमें से तीन सिक्ख गुरु साहिब के साथ रात के अंधेरे में उस गढ़ी से निकल गए| बाकी दो सिक्खों का अगले दिन कत्तल कर दिया गया| 


चमकौर साहिब से गुरु जी अकेले ही माछीवाड़ा के जंगलों में पहुच गए जहां उन्हे बहुत कष्ट सहने पड़े| गुरु साहिब के पठान शिष्यों ने गुरु साहिब को अपने घर में शरण दी| कुछ समय के बाद मुग़लों के गुप्तचर गुरु साहिब का पता लगाने के लिए उस जंगले में आ गए , लेकिन उन दोनों पठानों ने गुरु साहिब को नीले रंग के वस्त्र पहना दिए जिससे कि वह एक पीर फकीर लगे| और उन्हे पालकी में बीठा कर उन्हे दूर आलमगीर में छोड़ दिया| वहाँ गुरु साहिब के एक शिष्य ने उन्हे एक घोडा भेट किया| 

कई स्थानों से होते हुए अब गुरु साहिब अब दीना पहुच गए| दीना में गुरु साहिब ने औरंजेब को एक जफरनामा लिखा| इस पत्र में उन्होंने औरंगजेब के ऊपर वचन भंग करने आरोप लगाए| दीना में गुरु साहिब को समाचार मिला कि सरहिन्द का फौजदार उनके विरुद्ध विशाल सेना की तैयारी कर रहा हैं| गुरु साहिब ने मुग़लों के विरुद्ध खिदराना नामक स्थान को चुना| उन्होंने सोचा कि यहाँ पानी के अभाव में मुग़ल सेना ज्यादा समय तक टिक नहीं पाएगी| 


खिदराना की लड़ाई 1705 ईस्वी 


गुरु साहिब ने लखी जंगलों में खिदराना की ढाब नामक स्थान पर डेरे डाले| यहाँ काफी संख्या में सिक्खों ने गुरु साहिब का साथ दिया| गुरु साहिब के वे चालीस सिक्ख जो उन्हे आनंदपुर में बेदावा लिख कर छोड़ गए थे , वे भी उनका साथ देने के लिए आ गए| मुग़लों ने अपनी 10000 की सेना के साथ गुरु साहिब के विरुद्ध आक्रमण किया| सिक्खों की सेना 2000 की थी| इस लड़ाई में सिक्खों ने बड़ी बहादुरी से शत्रुओ का सामना किया| मुग़लों के लिए अधिक समय तक लड़ना कठिन था , क्युकी पानी पीने के लिए पानी नहीं मिला| वहाँ पानी का एक तालाब था जो कि सिक्खों के अधिकार में था| 

अंत में मुग़लों को पराजित होकर भागना पड़ा| इस लड़ाई में गुरु साहिब की शानदार विजय हुई| लेकिन वे सभी 40 सिक्ख इस लड़ाई में शहीद हो गए जिन्होंने आनंदपुर साहिब में गुरु साहिब का साथ छोड़ दिया था| गुरु साहिब ने उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके नेता महा सिंह जो कि उस समय आखिरी सांस ले रहा था , बेदावा फाड़ डाला| गुरु साहिब ने इन चालीस सिक्खों को मुक्ति का वर दिया जिसके कारण इन्हे चालीस मुक्ते कहा जाने लगा और खिदराना का नाम मुक्तसर पड़ गया| 


खिदराना की लड़ाई के बाद गुरु साहिब कई स्थानों से होते हुए तलवंडी साबो में पहुचे जिसे आजकल दमदमा साहिब कहा जाता हैं| यह वह कुछ समय तक रहे| गुरु साहिब के जफरनामा को पढ़कर उन्होंने गुरु साहिब से मिलने की इच्छा जताई , जिसके बाद गुरु साहिब उनसे मिलने के लिए निकल पड़े , लेकिन अभी गुरु साहिब राजस्थान में ही थे कि उन्हे औरंगजेब की मौत का समाचार मिला और वह वापस चल दिए| औरंगजेब की मौत के बाद उसके पुत्रों में राजगद्दी के लिए युद्ध हुआ , इस युद्ध में मुअज्जम की विजय हुई| मुअज्जम बाद में बहादुर शाह के नाम से सम्राट बना| 

गुरु साहिब ने बहादुर शाह से उसके अत्याचारी मुग़ल सूबेदारों के बारे में बात की , लेकिन जल्दी ही बहादुर शाह दक्षिण के युद्धों में व्यस्त हो गया और उसने गुरु साहिब की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया| गुरु साहिब को अब लगने लगा कि बहादुर शाह उसकी = कोई मदद नहीं कर पाएगा| इसलिए गुरु साहिब अब नादेड़ की तरफ चले गए| यहाँ गुरु साहिब की भेट माधोदास नामक बैरागी से हुई| माधोदास गुरु साहिब से बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ और वह गुरु साहिब का शिष्य बन गया| 

गुरु साहिब ने उसे पंजाब के मुग़ल सूबेदारों के विरुद्ध कार्यवाही करने को कहा| सरहिन्द के फौजदार ने गुरु साहिब की हत्या करने के लिए दो पठान दक्षिण में भेजे| ये दोनों पठान गुरु साहिब से मिलने के लिए बीच बीच में जाते थे| एक दिन मौका देख कर उनमें से एक पठान ने गुरु साहिब के पेट में छुरा मार दिया| उस समय गुरु साहिब सो रहे थे| पेट के घाव के कारण 7 अक्टूबर 1708 ईस्वी को उनका देहांत हो गया| 


गुरु साहिब ने अपने देहांत के पूर्व कहा कि उनके बाद से सिक्ख गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु माने और पाँच खालसा मिलकर अपने निर्णय स्वयं कर लिया करे| तो इस तरह से गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्खों के आखिरी गुरु थे| 



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