जानिए कौन थे गुरु तेगबहादुर जी जिन्होंने सिक्ख धर्म को बचाने के लिए शहीद हो गए
गुरु हरकृष्ण जी के बाद गुरु तेगबहादुर जी सिक्खों के नोवे गुरु बने| मार्च 1664 ईस्वी में गुरु हरकृष्ण जी ने अपने देहांत से पूर्व दो शब्द कहे थे 'बाबा बकाला '| इन दो शब्दों से उनका मतलब था कि उनके उत्तराधिकारी बाबा तेगबहादुर हैं जो कि बकाला में रहते हैं| गुरु हरकृष्ण जी ने तेगबहादुर जी का स्पष्ट शब्दों में नाम नहीं लिया था , इसलिए सोढ़ी परिवार के 22 व्यक्ति गुरु गद्दी के दावेदार बन गए और उनमें से सबने अपने आप को गुरु मानना शुरू कर दिया| इन सब परिस्थियों में सिक्खों के वास्तविक गुरु को पहचानना मुश्किल हो गया| कुछ समय के बाद एक घटना हुई जिससे सभी को ये यकीन हो गया कि तेगबहादुर जी ही वास्तविक गुरू हैं| 1664 ईस्वी में मक्खन शाह अपनी पत्नी और दो पुत्रों के साथ गुरु साहिब के दर्शन करने के लिए बकाला आया|
मक्खन शाह एक धनी व्यापारी था| बकाला आने से पहले जब वह जहाज में अपने माल सहित यात्रा कर रहा था तो तूफान आने के कारण उनका जीवन और माल खतरे मे पड़ गए| उस समय उसने गुरु साहिब को सच्चे दिल से याद किया और कहा कि अगर वो जीवत बच गया तो वो गुरु साहिब के चरणों में 500 स्वर्ण मोहरे भेट करेगा| अब वह यह देख के आश्चर्य में पड़ गया कि कई व्यक्ति गुरु बन बैठे हैं| उसने उनमें वास्तविक गुरु ढूंढने की योजना सूझी| उसने बारी बारी से हर एक गुरु के सामने दो दो स्वर्ण की मोहरे देता गया| झूठे गुरुओ ने तुरंत ही वह मोहरे स्वीकार कर ली| लेकिन जब वह तेगबहादुर जी के सामने गया और उन्हे दो मोहरे दी तो गुरु साहिब ने कहा कि 'जहाज डूबने के समय तो तुमने 500 मोहरे देने को कहा था , और अभी तुम 2 मोहरे ही दे रहे हो '| मक्खन शाह खुशी से झूम उठा उसने तुरंत बाकी के 498 मोहरे गुरु साहिब के चरणों में भेट कर दी| इस घटना से सब को यकीन हो गया कि गुरु तेगबहादुर ही उनके अगले गुरु हैं|
जन्म
गुरु तेगबहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल 1621 ईस्वी को अमृतसर में हुआ था| उनका प्रारम्भिक नाम त्यागमल था| वे छठे गुरु हरगोबिन्द जी के पाँचवे और सबसे छोटे पुत्र थे| उनका माता का नाम नानकी था| कहा जाता हैं कि उन्होंने अपनी माता से हृदय की कोमलता , एकांत और दयालुता ग्रहण की और अपने पिता से उन्होंने निडरता ,साहस ,अत्याचारों का विरोध करना सीखा था| जब वे 5 वर्ष के हुए तो उन्हे भाई बुड्डा जी और भाई गुरदास के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा था| उन्होंने घुड़सवारी करने और शस्त्र चलाने की भी शिक्षा ग्रहण की| उन्होंने करतारपुर की लड़ाई में अपने पिता का साथ भी दिया था
और असाधारण वीरता के गुण दिखाए थे| इस युद्ध के बाद ही गुरु हरगोबिन्द जी ने अपने पुत्र की बहादुरी से प्रसन्न होकर उनका नाम त्यागमल से तेगबहादुर रखा था| करतारपुर के निवासी लाल चंद और उसकी पत्नी किशन कौर तेगबहादुर जी के गुणों से अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी पुत्री गुजरी जी का उनसे विवाह करने का प्रस्ताव गुरु हरगोबिन्द साहिब के सम्मुख रखा| गुरु साहिब ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और तेग बहादुर जी का गुजरी से विवाह हो गया| बहुत समय तक तेगबहादुर जी के घर कोई संतान नहीं हुई| 1666 ईस्वी में उनके यहाँ एक पुत्र हुआ जिसका नाम गोबिन्द दस रखा गया|
1645 ईस्वी में अपने देहांत से पूर्व गुरु हरगोबिन्द जी ने अपने पोते हरराय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया| गुरु साहिब के आदेशानुसार नानकी जी गुजरी तेगबहादुर अब बकाला में रहने लगे| यहाँ पर गुरु साहिब ने अपने जीवन के लगभग 20 वर्ष बिताएँ थे| उन्होंने अपने घर में एक गुफा बना रखी थी जिसमें वे रोज ध्यान किया करते थे|
जब गुरु तेगबहादुर जी को गुरु गद्दी की प्राप्ति हुई| तब गुरु हरराय जी का बड़ा भाई धीरमल ईर्ष्या से जलने लगा| वो किसी भी कीमत पर गुरु गद्दी को हासिल करना चाहता था| उसने गुरु साहिब की हत्या करने का षडयंत्र रचा| इस कार्य को उसने शिहा नामक मसंद को दिया| कुछ शस्त्रधारी लोगों को साथ लेकर उसने एक दिन गुरु साहिब पर आक्रमण कर दिया| शिहा ने गुरु साहिब पर गोली चलाई जिससे गुरु साहिब के कंधे पर घाव हो गया , लेकिन उनकी जान बच गई| शिहा के आदमियों ने गुरु साहिब की संपत्ति लूट ली|
गुरु साहिब के सिक्ख शिहा और धीरमल के विरुद्ध भड़क उठे| उन्होंने मक्खन शाह के नेतृत्व में धीरमल के घर पर हमला कर दिया| उन्होंने धीरमल के समर्थकों को बुरी तरह हराया और शिहा तथा अन्य लोगों को पकड़ कर गुरु साहिब के सामने ले गए| गुरु साहिब की संपत्ति को वापस करने के साथ साथ वे धीरमल की संपत्ति भी ले आए जिसमें आदि ग्रंथ साहिब की प्रति भी थी जो काफी समय से धीरमल के पास थी| गुर साहिब में बदले की भावना नहीं थी| उन्होंने शिहा तथा अन्य कैदियों को क्षमा करते हुए उन्हे रिहा कर दिया और सिक्खों को धीरमल की संपत्ति को लौटने को कहा| इस घटना के बाद धीरमल करतारपुर में जाकर रहने लगा|
गुरु तेगबहादुर जी की यात्राएँ
गुरु गद्दी पर बैठने के बाद अब गुरु साहिब धर्म का प्रचार करने के लिए यात्राएँ करना चाहते थे| वे लोगों में प्रेम का संदेश पहुचाने के लिए यात्रा करना चाहते थे| गुरु नानक देव जी के बाद गुरु तेगबहादुर जी ही ऐसे गुरु थे जिन्होंने इतनी अधिक यात्राएँ की थी|
अमृतसर
बकाला से मक्खन शाह , दरगाह मल्ल आदि सिक्खों को साथ लेकर गुरु साहिब सबसे पहले अमृतसर गए , यहाँ पर उनका जन्म हुआ था| उन दिनों हरिमंदिर साहिब पर मेहरबान के पुत्र हरनी मीना का अधिकार था| उसने कुछ दुष्ट मसंदों के साथ साठ गाठ करके स्वयं को गुरु घोषित कर लिया था| गुरु साहिब के आने का समाचार पाकर उसने हरिमंदिर साहिब के सभी द्वार बंद करवा दिए और उन्हे अंदर नहीं आने दिया| गुरु साहिब अकाल तख्त के निकट एक वृक्ष के नीचे कुछ समय तक ठहरे| इस स्थान को आजकल थम साहिब कहा जाता हैं| उसके बाद हरियन नामक स्त्री के निमंत्रण पर गुरु साहिब अमृतसर से लगभग कुछ ही दूरी पर वल्ला नामक गाँव में चले गए| कहा जाता हैं वहाँ बहुत संख्या में स्त्रिया आई और उन्होंने लंगर का प्रबंध किया और गुरु साहिब के प्रति अदर भाव प्रकट किये| गुरु साहिब ने उन सभी को आशीर्वाद दिया और आगे की यात्रा पर चल पड़े|
इसके बाद गुरु साहिब वल्ला से चल कर घुकेवली गांव में गए और उसके बाद उन्होंने खडुर साहिब , गोइंडवाल साहिब और तरनतारन साहिब से होते हुए वे खेमकरण पहुचे| इन सब स्थानों में गुरु साहिब के दर्शन करने के लिए बहुत से लोग आए|
कीरतपुर और बिलासपुर
माँझा प्रदेशों की यात्रा करने के बाद गुरु साहिब सतलुज नदी को पार कर मालवा के प्रदेशों की यात्रा करने लगे| तलवंडी सबों जैसे स्थानों से होते हुए वह कीरतपुर पहुचे| यहाँ पर बहुत से सिक्ख उनके दर्शन के लिए पहुचे| गुरु साहिब को वहाँ पता चला कि बिलासपुर के राजा दीप चंद की मौत हो गई हैं| गुरु साहिब उनकी क्रिया में भी शामिल हुए| राजा दीप सिंह की पत्नी ने गुरु साहिब का स्वगत किया| रानी ने मखोवाल का स्थान गुरु साहिब को देने की इकछा की| गुरु साहिब ने मुफ़्त में भूमि लेने से इनकार कर दिया और अंत में 500 रुपए देकर उन्होंने वो भूमि खरीद ली| उन्होंने उस भूमि पर एक नगर की नींव रखी जिसका नाम उन्होंने अपनी माता के नाम पर चक नानकी रखा| बाद में इस नगर के आस पास आनंदपुर साहिब नाम का एक सुंदर नगर बस गया|
सैफबाद तथा धामधान
रोपड़ ,बनूड और राजपुरा से होते हुए गुरु साहिब सैफबाद पहुचे| यहाँ वे नवाब सैफा खां के पास ठहरे जो कि धार्मिक विचारों वाला मुग़ल अधिकारी था| एक दिन सैफाबाद में ठहरने के बाद गुरु साहिब अगले दिन धामधान को चले गए| गुरु साहिब वहाँ दिवाली को पहुचे थे| उस दिन आस पास के गांवों के हजारों लोग गुरु साहिब के दर्शन करने के लिए आए| कुछ दिन के बाद सेनानायक आलम खां रूहेला सम्राट औरंगजेब की आज्ञा से अचानक गुरु साहिब को बंदी बना लिया|
दिल्ली
धमधान से गुरु साहिब को दिल्ली लाया गया और औरंगजेब के सामने पेश किया गया| कहा जाता हैं कि गुरु साहिब से पुछ ताछ करने के बाद सम्राट ने उन्हे मौत का दंड दिया लेकिन आमेर के राजा रामसिंह ने सम्राट को विश्वास दिलाया कि गुरु साहिब एक संत हैं और उन्हे मौत की सजा देना सही नहीं हैं| राजपूत राजा के गुरु साहिब की जिम्मेवारी ऊपर लिए जाने के कारण औरंगजेब ने उन्हे मौत की सजा नहीं दी| गुरु साहिब अब अपनी आगे की यात्रा पर चल दिए|
मथुरा
दिल्ली से गुरु तेगबहादुर जी मथुरा पहुचे| मथुरा की यात्रा करने के बाद वे वृंदावन गए और उसके बाद गुरु साहिब आगरा गए और वहाँ से कानपुर गए जहां उनकी स्मृति में बाद में गुरुद्वारा बनाया गया| उसके बाद गुरु साहिब इलाहाबाद गए और फिर वहाँ से बनारस गए| गुरु साहिब लगभग 15 दिन बनारस में ठहरे| बनारस की यात्रा के बाद गुरु साहिब ने आधुनिक बिहार प्रांत में प्रवेश किया और सासाराम पहुचे| सासाराम में सिक्ख प्रचार केंद्र का मुखिया मसंद फग्गूशाह था| उसने गुरु साहिब के ठहरने के लिए एक सुन्दर भवन का निर्माण करवा दिया| गुरु साहिब इस भवन में 15 दिन ठहरे| उसके बाद गुरु साहिब गया गए जो कि बोद्धों का तीर्थस्थल हैं| यहाँ पर गुरु साहिब ने कई ब्राह्मणों और लोगों को धर्म का वास्तविक मार्ग दिखाया|
पटना
गया के बाद 1661 ईस्वी में गुरु साहिब पटना पहुचे| वहाँ कुछ महीने वह ठहरे| रोज बहुत संख्या में लोग उनसे मिलने आए करते थे और उनके उपदेशों को सुनते थे| उस समय गुरु साहिब की पत्नी गर्भवती थी और उन्हे कुछ समय बाद ही बच्चा होने वाला था| गुरु साहिब ने अपनी पत्नी और अपनी माता को वही पर छोड़कर आगे की यात्रा पर निकल गए| इसके गुरु साहिब मुंगेर नामक स्थान पर कुछ समय के लिए रुके| मुंगेर से भागलपुर और उसके बाद कई स्थानों से होते हुए गुरु साहिब ढाका पहुचे जो कि वर्तमान बगलदेश की राजधानी हैं| उन दिनों ढाका सिक्ख प्रचार का महत्वपूर्ण केंद्र था| ढाका की संगत गुरु साहिब के दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुई| गुरु साहिब ढाका में 1 वर्ष तक रहे| यही पर उन्हे अपने पुत्र के जन्म का समाचार भी मिला|
धुबरी
ढाका के बाद गुरु साहिब असम की यात्रा करने के लिए निकल गए और राजा रामसिंह भी उनके साथ थे| असम के शासक ने मुग़लों को बुरी तरह से हराकर असम से भगा दिया था| अब राजा रामसिंह के नेतृत्व में विशाल मुग़ल सेना को असम में भेजा गया| असामियो के जादू टोने के कारण मुग़ल डर गए| रामसिंह ने गुरु साहिब को असम चलने की प्राथना की| गुरु साहिब ने असम में सिक्ख धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से चलने को तैयार हो गए| अहोमो ने अपने जादू टोनों का प्रयोग किया और मुग़लों को हराने की कोशिश की लेकिन सब कुछ विफल रहा और बाद में उन्हे पता चला की मुग़लों के खेमे में तेगबहादुर जी हैं| गुरु साहिब ने रामसिंह और चकरध्वज में समझोंता करवा दिया| उसके बाद गुरु साहिब ने असम के बहुत से हिस्सों की यात्रा की|
इसके बाद गुरु साहिब मालवा गुरु साहिब वापस पंजाब की तरफ लौटने लगे और उन्होंने पटना में अपनी पत्नी ,माता और अपने पुत्र को साथ लेकर आने लगे| इस बार उन्होंने पंजाब के आस पास के बांगर और मालवा प्रदेशों की यात्रा की| और उन्होंने वहाँ के अधिकतर गावों की यात्रा की उसके उन्होंने उपदेश दिया कि 'ना ही किसी से डरो और ना ही किसी को डराओ '|
गुरु साहिब की शहीदी
गुरु साहिब की शहीदी के बहुत से कारण थे , पहला तो ये था की उनसे कट्टरपंथी बहुत डर गए थे क्युकी उनके प्रभाव में आकर बहुत से लोगों ने सिक्ख धर्म धारण कर लिया था| दूसरा ये की उन्होंने बहुत से प्रदेशों की यात्राएँ की थी और बहुत से लोग उनके संपर्क में आए थे तो औरंगजेब को ये डर सताने लगा कि कही सिक्ख विद्रोह का ना कर दे| तीसरा कारण धीरमल और रामराय की शत्रुता भी थी , उन्होंने औरंगजेब को गुरु साहिब के खिलाफ बहुत भड़काया| एक कारण ये भी था कि औरंगजेब खुद भी बहुत ज्यादा कट्टर मुसलमान था| वह दूसरे धर्मों के लोगों को देखना भी पसंद नहीं करता था , उसने अपने काल में बहुत से लोगों को जो कि दूसरे धर्मों के थे सजा दी थी| वह सिक्खों से बहुत ज्यादा जला करता था|
लेकिन एक तात्कालिक कारण जिसके कारण गुरु साहिब को शहीद किया गया| औरंगजेब ने अपने एक सूबेदार को कश्मीर का सूबेदार बना दिया , जिसने वहाँ पर अनेक लोगों को बलपूर्वक मुसलमान बनाना शुरू कर दिया था| वह कश्मीरी पंडितों पर बहुत ज्यादा अत्याचार किया करता था , जिससे दुखी होकर कश्मीरी पंडित गुरु साहिब से मिलने आ गए और उन्होंने गुरु साहिब से सहायता मांगी| गुरु साहिब उनके दुखों को सुनकर सोच में पड़ गए कि इनकी अब कैसे सहायता की जाए| उन्होंने कहा कि इनके दुखों को दूर करने के लिए किसी महान इंसान को अपना बलिदान देना होगा| गुरु साहिब के 9 वर्षीय बालक गोबिन्द दास ने कहा कि इस समय आपसे ज्यादा महान व्यक्ति कोन हो सकता हैं| इसके गुरु साहिब ने ये फैसला लिया कि वो अब दिल्ली जाएंगे और औरंगजेब से इस बारे में बात करेंगे|
और वो ये अच्छी तरह से जानते थे की औरंगजेब उनकी बात नहीं मानेगा और उन्हे दंड भी दे सकता हैं| लेकिन फिर भी गुरु साहिब धर्म को बचाने के लिए दिल्ली जाना चाहते थे| कश्मीरी पंडितों की प्राथना पर गुरु साहिब आत्म बलिदान देने को तैयार हो गए| उन्होंने नो वर्षीय पुत्र गोबिन्द दास जी को विधि अनुसार 8 जुलाई 1675 ईस्वी को अपना उत्तराधिकारी बना दिया| उसके बाद गुरु तेगबहादुर जी भाई सती दास , भाई मति दास और भाई दयाल नामक श्रद्धालु सिक्खों को साथ लेकर आनंदपुर साहिब से दिल्ली की तरफ चल दिए|
गुरु साहिब को मार्ग में ही बंदी बना लिया गया और दिल्ली के चाँदनी चौक में कोतवाली में 8 दिन कैद में रखा| औरंगजेब इस समय दिल्ली में नहीं था| लेकिन उसने ही गुरु साहिब को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था| औरंगजेब के आदेशानुसार गुरु साहिब तथा उनके साथियों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने को कहा गया और साथ ये धमकी भी दी कि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो उन्हे मौत कर घाट उतार दिया जाएगा| जब गुरु साहिब ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया उसके बाद उन्हे यातनाए देकर शहीद कर दिया गया| भाई मति दास को बांध कर उन्हे आरे से बीच से ही चीर दिया गया , भाई दयाल को उबलते हुए पानी की देग में डाल कर शहीद कर दिया गया और भाई सती दास को पूरे शरीर में रुई लपेट कर जिंदा जला दिया गया|
गुरु साहिब के इन प्रिय शिष्यों का गुरु साहिब के सामने जानबूझ कर वध कर दिया गया ताकि गुरु साहिब इस्लाम कबूल कर ले| लेकिन गुरु साहिब अपने फैसले पर अटल रहे| गुरु साहिब का सिर धड़ से अलग कर दिया गया| गुरु साहिब की शहीदी के बाद उनका सिर और धड़ जमीन पर ही पड़ा रहने दिया गया| भाई जैता , भाई ननु और भाई ऊदा नामक तीन सिक्खों ने गुरु साहिब के शीश को चक नानकी पहुचा दिया| और वहाँ उनके शीश का अंतिम संस्कार कर दिया गया| गुरु साहिब का अन्य सिक्ख भाई लखी शाह ने अपने अपने बैटों की मदद से गुरु साहिब के धड़ को अपने छकड़े में डाल कर अपने घर ले गया और उसने अपने घर को आग लगा दी और उनके धड़ का अंतिम संस्कार कर दिया गया| इस स्थान पर आज गुरुद्वारा रंकाबज़ साहिब बना हुआ हैं|
गुरु साहिब की शहीदी के बाद सिक्खों में क्रोध की भावना बहुत बढ़ चुकी थी , उन्होंने अब अत्याचारी मुग़लों के खिलाफ हथियार उठा लिए| उनका नेतृत्व अब सिक्खों के दसवे गुरु गोबिन्द सिंह जी ने किया|
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