जानिए कश्मीर का स्वर्णिम इतिहास

आज के इस लेख में हम कश्मीर के स्वर्णिम इतिहास के बारे में जानेंगे| कश्मीर के इतिहास के अध्ययन के लिए यों तो बहुत सारे साधन उपलब्ध हैं , परंतु सर्वप्रमुख साधन राजतरंगिनी हैं| सम्राट अशोक के समय कश्मीर मौर्य साम्राज्य का एक भाग था| अशोक ने अनेक शहरों को बसाया था और श्रीनगर शहर को बसाया था| हुएनसांग के अनुसार अशोक ने सार कश्मीर बोधसङ्घ को दान कर दिया था| उसकी मौत के बाद उसका पुत्र जालोक कश्मीर मरीन स्वतंत्र शासक हो गया| उसके बाद बहुत समय तक कश्मीर का इतिहास अंधकारमय ही रहा| बड़े - बड़े साम्राज्यों के होते हुए भी ये उन साम्राज्यों कि धारा से अलग रहा| यहाँ कुषाण राजाओ ने शासन किया और फिर हुन शासक मिहिरकुल ने भारत के गुप्त साम्राज्य से पराजित होने के बाद यह अपना राज्य कायम किया था| मुद्राओ से पता चलता हैं कि वह एक शैवधर्मी था| उज्जैन के राजा हर्ष विकर्मदित्य के फलस्वरूप हूणों के राज्य का अंत हो गया| उसने हूणों कि राजगद्दी पर कवि मात्रगुप्त को बिठा दिया , किन्तु प्रवर्सेन द्वितीय ने उसे तुरंत निकाल दिया| कुछ इतिहासकार प्रावर्सेन को कश्मीर का संस्थापक मानते हैं| उसके बाद कश्मीर का इतिहास करकोट वंश से शुरू होता हैं|
करकोट वंश
दुर्लभवर्धन करकोट वंश का संस्थापक था| वह हर्षवर्धन के समय का था और उसके अधीन मित्र था| वह बहुत शक्तिशाली राजा था और सिंहपुर , उरशा और राजपुर ( राजोरी ) के राजा उसके मित्र थे| उसने 36 वर्षों तक शासन किया| हुएनसांग दो सालों उसके राज्य में रहा था|
इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक ललितदित्य मुक्तपीठ था| वह 724 - 760 ईस्वी तक शासक रहा था| वह दुर्लभवर्धन का पौत्र था| वह बहुत ही प्रतापी राजा था| उसकी दिग्विजयी का वर्णन राजतरंगिनी में मिलता हैं| पहले उसने पंजाब को जीता उसके बाद कन्नौज के राजा यक्षोंवर्मन से उसका युद्ध हुआ और उसके पक्षिमी भाग पर उसने कब्जा कर लिया| यक्षोंवर्मन और ललितदित्य दोनों ही महावपूर्ण राजा थे| पहले दोनों में संधि की बातचीत हुई लेकिन पहले कौन हस्ताक्षर करे इस पर समस्या उत्पन्न हो गई और अंत में युद्ध से तय हो पाया| भोटों के देश ( भूटान और तिब्बत ) में उसकी सेनाएँ गई| चीन के सम्राट के साथ भी उसके संबंध थे| उस समय मध्य एशिया पर अरबों के आक्रमण हो रहे थे और उसमें तिब्बतवालों ने अरबों का साथ दिया| मुक्तपीठ ने तिब्बतीयों को हराया , जालंधर , लाहौर को जीता , सिंधु के शाहियों को पराजित किया और कल्हण के अनुसार बंगाल , उड़ीसा ,कठियावाड़ , कंबोज , तुषार तथा दरद प्रदेशों पर विजय प्राप्त की| चीन के साथ उसका घनिष्ठ संबंध था| वह सिर्फ एक विजेता ही नहीं था , बल्कि कला और साहित्य का संरक्षक भी था| उसने बहुत से बोद्धविहार और मंदिर बनवाए थे| प्रसिद्ध मार्तंड मंदिर को ललितदित्य मुक्तपीठ ने ही बनवाया था| उन्होंने प्रहासपुर में बुद्ध कि विशाल मूर्ति स्थापित कराई थी| उन्होंने हुषकपुर और अन्य स्थानों में बोद्धविहार बनवाए और भूतेश शिव , परिहास , केशव - विष्णु आदि देवताओ के मंदिर बनवाए थे| उन्हे कुछ लोग दुर्लभवर्धन का पुत्र मानते हैं|
ललितदित्य के बाद इस वंश का सबसे प्रतापी राजा उसका पोता जयापिड़ विन्यदित्य था| उसने अपने पिता से भी अधिक विजय प्राप्त की थी| उन्होंने गौड़ ,कनौज , नेपाल आदि प्रदेशों जीता था| लगातार युद्धों के कारण उसका कोश खाली हो गया था , इसलिए अपने शासन के अंतिम दिनों में उसने प्रजा का शोषण करना शुरू कर दिया| जिसके फलस्वरूप कारकोट वंश धीरे धीरे कमजोर हो गया| उसके बाद 9वी शताब्दी में उत्पल वंश की स्थापना हुई| उसने 779 ईस्वी से 810 ईस्वी तक शासन किया|
उत्पल
855 ईस्वी में अवनतिवर्मा ने उत्पल वंश की स्थापना की| कारकोट वंश के लोगों ने प्रजा का जो शोषण किया था , उससे देश कि आर्थिक स्तिथि बहुत गिर गई थी| इसलिए अवनतिवर्मा ने देश में सुधार कि और ध्यान दिया| उसने व्यर्थ कि लड़ाईओ में अपनी शक्ति व्यर्थ ना करके देश के शासन में आर्थिक सुधार कि और ध्यान दिया और प्रजा कि भलाई कि और ध्यान दिया| सबसे पहले उसने गावों में उत्पात मचाने वाले दामर उतराधिकारी को कराई से दबाया| उसके कर्मसचिव सूयय ने सिचाई के लिए कई नहरे खुदवाई| उसने सोनपुर और अवन्तीपुर नाम के दो नए नगर बसाये| उन्होंने अनेक मंदिर बनवाए और उनके व्यय का प्रबंध किया| उन्होंने 883 ईस्वी तक राज्य किया| उसके बाद उनका उतराधिकारी शंकरवर्मा हुआ| उसने सुदूर देशों को जीता| उसके इस अभियान के फलस्वरूप उसका खजाना खाली हो गया और उसे मंदिरों कि संपत्ति लुटनी पड़ी| राज्याधिकार के लिए भी उसे ग्रहयुद्ध करना पड़ा| उसने युद्धनीति अपनाई और झेलम - चिनाब के बीच के प्रदेशों से धर्मोतसव कर भी वसूला| उरशा के अभियान से लौटते समय उसकी मौत हो गई थी| उसकी नीति से प्रजा दरिद्र हो गई विद्ययक्षेत्रो का पतन हुआ| उसने 902 ईस्वी तक शासन किया| इसके बाद शंकरवर्मा के पुत्र गोपालवर्मा के मंत्री प्रभाकरवर्धन ने कबुलघाटी के शाही राजा राजा समांतदेव को पराजित किया और उसे पद से हटाकर तोरमान को गद्दी पर बिठा दिया| 904 ईस्वी में गोपालवर्माण कि मौत हो गई थी , उसकी मौत के बाद 904 ईस्वी से 939 ईस्वी तक का काल खून खराबियों से भरा पड़ा हैं| गोपालवर्माण के बाद शासनतंत्र बिगड़ता गया| मंत्री और सैनिक अधिकारियों से प्रजा पीड़ित थी| राजा स्वयं विलासी होने के कारण प्रजा को बच नहीं सकते थे| पार्थ नामक शासक के काल में बहुत बड़ा अकाल पड़ा था| इसके फलस्वरूप बहुत सी प्रजा भूखी मर गई थी| मंत्रियों , तंत्रियों और बनियों से बहुत महंगा अनाज बेच के धन कमाया| उन्मतावन्ती का शासनकाल कश्मीर के इतिहास में एक दुखद काल का स्मरण दिलानेवाला हैं| उसने बोद्धविहारों में अपने भाईओ को तरपाकर मरवाया था| वह स्त्रीओ के सिर को कटवाकर उनका तमाशा देखता था| कल्हण का विवरण उस समय के दुर्भिक्ष के संबंध में इस प्रकार हैं :- " कोई बहुत स्वल्पमात्रा में झेलम में पानी को देख सकता था , क्युकी वह नदी पूरी तरह से मानव लाशों से ढकी हुई थी| देश सारी दिशाओ में हड्डियों से ढका हुआ था| यह महशमशान जैसा दिख रहा हैं , जो देखने में भय उटपन करता हैं| राजा उन्ही व्यक्तियों को मंत्री निउक्त करता था जो पिछले मंत्रियों से अधिक धन वसूलता था और प्रजा को उनके हाथ बेच देता था| " राजा उन्मतावन्ती का नाम उसकी दुष्टा का परिणाम था| उसने जयेन्द्र नामक बोद्धविहार में अपने बूढ़े माँ बाप को मार डाला और अपने सोतेले भाईओ को अन्न जल के बिना तरपाकर मार डाला| उसके पुत्र सुरवर्मन के समय उत्पल वंश का अंत हुआ|
तंत्रिन पैदल सैनिकों का एक दल होता था| यह एक शक्तिमान दल था| तंत्रिन लोग इतने शक्तिशाली होते थे कि उत्पल राजा उनके हाथ कि कठपुतली बन जाते थे| सुरवर्मन के बाद ब्राह्मणों ने गोपालवर्मन के मंत्री प्रभाकरवर्मन के पुत्र को अपना राजा चुना| उसने 9 वर्षों तक यानि 939 से 948 तक शासन किया और उसके काल में देश में शांति और सुववस्था रही थी| उसके पुत्र संग्राम को उसके मंत्री प्रवगुप्त ने 949 ईस्वी में मारकर गद्दी छीन ली थी| दीददा इस वंश की सबसे शक्तिशाली रानी थी| उसने लगभग 50 वर्षों तक शासन किया| उसके समय में देश में शांति रही और बहुत से मंदिरों का निर्माण हुआ| वह भीमशाही कि नतिनी और लोहार राजा सिंहराज की कन्या थी| वह अत्यंत महत्वकानक्षी थी हालंकि उसके समय में भी षड्यन्त्र होते रहते थे| दमरो और ब्राह्मणों से उसका विरोध होता रहा , परंतु उसने नीच कुल के एक व्यक्ति तुंग कि सहायता से अपनी शक्ति कायम रखी थी| तुंग से उसका प्रेम था| 1003 ईस्वी में उसकी मौत हो गई , उसके बाद उसका भतीजा संग्रामराम गद्दी पर बेठा| उसने लोहार नामक नवीन राजवंश कि स्थापना की|
लोहार वंश
संग्रामराम इस वंश का संस्थापक था| उसके समय भी तुंग का प्रभाव बना रहा| संग्रामराम एक दुर्बल शासक था| तुंग महमूद गजनवी के विरुद्ध पंजाब के शासक त्रिलोचनपाल कि सहायता के लिए गया , परंतु उसे पराजित होना पड़ा| महमूद ने कश्मीर को जीतने का प्रयत्न किया लेकिन भोगोलिक परिस्थियों के कारण उसे सफलता नहीं मिली और उसे लाहौर वापस आना पड़ा| लोहार वंश का दूसरा शासक अनंत था , जो कि 1028 ईस्वी में बना था| उसके समय में कश्मीर कि स्तिथि सुधरी| उसकी पत्नी सूर्यमती शासन और कोष दोनों को संभालने के लिए एक मंत्री का काम करती थी| आसपास के आक्रमणों के फलस्वरूप उसका कार्य नहीं के बराबर हो गया था| उसने अपने योग्य मंत्री हलदर के परामर्श से अपने पुत्र कलश को राज्य दे दिया| किन्तु कलश विद्रोही सिद्द हुआ और उसके पिता ने आत्महत्या कर ली और उसकी मत सती हो गई| इस घटना से कलश में सुधार आया और उसने यॉन खोया हुआ सम्मान फिर से प्राप्त कर लिया|
हर्ष
उसके बाद हर्ष कश्मीर का शासक हुआ| वक कलश का पुत्र था| पारिवारिक कष्टों के बावजूद उसने अपने राज्य कि स्तिथि सुधारी और कला , विद्या और संस्कृति को प्रोत्साहन दिया| उसने भी प्रसार प्रारंभ कर दिया और उसकी आवशकता को पूरा करने के लिए मंदिरों और मठों को लूटने शुरू कर दिया| उसके सेनापति उच्छल ने उसके भाई सूस्सल के नेतृव में विद्रोह कर दिया| 1101 ईस्वी में हर्ष का वध हुआ| कल्हण हर्ष के मित्र का पुत्र था| उसने राजतरंगनी में उसके सम्पूर्ण राज्य का वृतांत किया हैं| उसके बाद उच्छल कश्मीर का शासक बना| उसने अपने भाई को लोहार का राजा निउक्त किया| रछ ने शीघ्र ही उसे मार दिया| उसके बाद सिंहासन पर एक के बाद एक दूसरे आक्रांता आते गए और कश्मीर का इतिहास अंधकार में चला गया| 1123 ईस्वी में सूस्सल के पुत्र जयसिंह ने राजगद्दी संभाली जिसके बाद कश्मीर में शांति स्थापित हुई| उसने 30 वर्षों तक राज्य किया| मुसलमानों कि सहायता से उठे अपने सामंतों के विद्रोह को उसने दबा दिया| उसके बाद अयोग्य शासक सिद्द हुए| जयदेव ने इतिहास में कुछ सम्मान प्राप्त किया| संग्राम के समय जो राजवंश स्थापित हुआ था , वह किसी प्रकार 1339 ईस्वी तक चला| उसी वर्ष एक मुसलमान शासक का राज्य स्थापित हुआ| वह मुसलमान शासक कुछ दिन पूर्व ही मुसलमान हुआ था| रिचेन नामक एक तिब्बती राजा ने भी कश्मीर पर अपना राज्य बढ़ाया था| 1586 ईस्वी में अकबर ने इसे अपने राज्य में मिला लिया था| कश्मीर का इतिहास लूट , अत्याचार , शासकीय दुर्ववस्था और आर्थिक शोषण का इतिहास रहा हैं|
कश्मीर अशोक केब समय से ही बोद्ध का एक केंद्र था| यह शैवधर्मी का भी एक विशेष केंद्र था| इस संप्रदाय ने वसुगुप्त , कललट , सोभानन्द , उत्पल आदि महान लेखकों को जन्म दिया था| कश्मीर संस्कृत साहित्य का एक केंद्र था| कल्हण ने अपनी राजतरंगनी कि रचना यही की थी| कश्मीर काफी दिनों तक कला , साहित्य , हिन्दू और बोद्ध धर्मों का केंद्र रहा| आरंभिक मुसलमान राजाओ में भी ब्राह्मणों का राजनीतिक आस्तित्व कायम रहा| आदि शंकराचार्य ने केरल से लेकर कश्मीर तक की यात्रा की थी| उन्होंने यह पर अनेक ग्रंथों कि रचना की थी| पौराणिक कथाओ के अनुसार कश्मीर का निर्माण ऋषि कश्यप ने एक पहाड़ को काटकर किया था| उन्ही के नाम पर इसका इसका नाम कश्मीर रखा गया था| आजादी के बाद भी कश्मीर के लोगों पर अत्याचार होते रहे थे , कुछ कट्टरपंथियों ने कश्मीर के लोगों पर अत्याचार किये थे| उसके बाद कश्मीर कि हालत में कुछ सुधार आया|
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