जानिए मगध का स्वर्णिम इतिहास
आज इस लेख में हम आपको मगध के इतिहास के बारे में बताएंगे| मगध को वैदिक साहित्य में अपवित्र स्थान माना गया हैं| इसका कारण ये था कि आर्यों के सांस्कृतिक प्रभाव से मगध काफी दिनों तक दूर रहा था| मगध के निवासियों को लोग पतित कहा करते थे| ये आर्य थे या अनार्य ये कहना संभव नहीं हैं , परंतु इतना निश्चित हैं कि ये लोग वेदसमपत सभ्यता को स्वीकार नहीं करते थे| छठी शताब्दी पूर्व मगध में बाहर्दरथवंश का राज था और इसकी राजधानी राजग्रह में थी| ब्रहदरथ का पुत्र जरासंध बहुत शक्तिशाली शासक था| इस वंश का अंत कब और केसे हुआ इसके बारे में इतिहास में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता| बुद्ध के समय इस राज्य में बिंबिसार शासन कर रहा था| इसके वंश और समय को लेकर इतिहासकारों में काफी मतभेद था|
बिंबिसार
बिंबिसार एक सामान्य सामंत भट्टीय का पुत्र था| प्रारंभ में उसकी राजधानी गिरिव्राज में थी , परंतु बाद में उसने राजग्रह को अपनी राजधानी बनाया| वह एक कुशल राजनीतज्ञ था| उस समय साम्राज्य विस्तार का जो प्रयास चल रहा था उससे अलग रहना बिंबिसार जैसे महत्वाकांक्षी शासक के लिए असंभव था| अपनी शक्ति को मजबूत करने के लिए उसने तत्कालीन राजाओ के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये| उसने कोशल कि राजकुमारी कोशल देवी से विवाह किया| इसके फलस्वरूप उसे दहेज में काशी मिल गई| कोशल और मगध में मित्रता होती चली गई| वैशाली के लिकच्छवि राजा चेटक कि पुत्री चेलना से विवाह करके उसने लिकच्छवि की मित्रता प्राप्त कर ली| उसने मद्र की राजकुमारी क्षेमा के साथ भी विवाह किया और इस प्रकार मगध का प्रभाव क्षेत्र और भी बड़ा हो गया| इन सब वैवाहिक संबंधों के फलस्वरूप बिंबिसार कि शक्ति काफी बढ़ गई थी| महावग नामक लेख में उसकी 500 रानियों का उल्लेख मिलता हैं| बिंबिसार ने सर्वप्रथम अंग के राजा ब्रहदत्त को हराकर अंग को मगध में मिला लिया| इसके बाद उसके राज्य कि सीमा पूर्व में अंग और पक्षिम में काशी तक हो गई थी| अंग के अतिरिक्त उसने कुछ और प्रदेशों को जीत कर मगध राज्य में मिलाया| उसका प्रभाव कितना बढ़ गया होगा यह तो इसी से स्पष्ट होता हैं कि गांधार के राजा पुकुसाती ने उसके राजदरबार में अपना दूत भेज था| बिंबिसार बुद्ध का समर्थक था , पर दूसरे संप्रदायों को भी दान देता था|
राजा ही शासन का प्रधान होता था आउए उसकी सहायता के लिए उपराजा , मांडलिंक राजा , सेनापति , सेनानायक , महामात्र , ग्रामभोजक आदि प्रमुख पदाधिकारी होते थे| कुछ इतिहासकारों के अनुसार बिंबिसार अपने बड़े पुत्र दर्शक कि सहायता से राज करता था| इसलिए उसे उपराजा कहा गया हैं| मांडलिक राजाज्ञा से शासन करते थे| सेनापति का पद बड़ा ही महावपूर्ण था| बिंबिसार का शासनकाल 544 ईस्वी पूर्व से 491 ईस्वी पूर्व तक था|
अजातशत्रु
बिंबिसार के बाद राजगद्दी के लिए उसके भाइयों में संघर्ष हुआ या नहीं इसके बारे में इतिहास में कोई प्रमाण तो नहीं मिलता , लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु ने अपने पिता कि हत्या कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया| अजातशत्रु का दूसरा नाम कुणीक था| पहले वह अंग कि राजधानी चम्पा में नियुक्त हुआ और वहा पर ही उसने शासन - व्यवस्था प्राप्त की| कुछ लोगों के अनुसार अजातशत्रु ने बुद्ध के चचेरे भाई देवव्रत के उकसाने पर ही अजातशत्रु ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया था| कहा जाता हैं कि बाद में उसे अपने कृत्य पर बहुत दुख हुआ और वह महात्मा बुद्ध के यहाँ गया| बोधसाहित्य में उसे कोशलदेवी का और जैन साहित्य में उसे चेलना का पुत्र कहा गया हैं|
अपने पति कि दुर्दशा देखकर कोशलदेवी को बड़ा धक्का लगा और बाद में उसका भी देहांत हो गया| इस पर कोशलदेवी के भाई पसेंदि ने काशी की वार्षिक आय रोक ली| इसे लेकर मगध और कोशल में पुनः संघर्ष शुरू हो गया| प्रारंभ में अजातशत्रु ने कई बार कोशलनरेश को पराजित किया| इस लड़ाईं में कभी मगध विजयी होता तो कभी कोशल| अंत में प्रेसेंजित ने संधि कर लेने में ही बुद्धिमानी समझी| उसने अपनी कन्या वजीरा का विवाह अजातशत्रु के साथ कर दिया और काशी ने फिर से उसे कर देना शुरू कर दिया| इससे अजातशत्रु कि प्रतिष्ठा बहुत बहुत बढ़ गई| सफल साम्राज्यवादी होने के नाते अजातशत्रु जानता था कि जब तक वरेजजीसंघ नष्ट नहीं हो जाता , तब तक उसकी प्रतिष्ठा बिहार में कायम नहीं हो पाएगी| यही कारण हैं कि प्रारंभ से ही उसकी आँख वरेजजीसंघ पर लगी हुई थी| यह संघ उस समय के सबसे समृद्ध , सम्पन्न और स्वतंत्र राष्ट्रों में से एक था| राजा प्रेसेंजित के समय में एक कोशल कि सेना ने एक बार वरेजजीसंघ पर चढ़ाई कि थी| वरेजजीसंघ को हराने के लिए अजातशत्रु ने नए सिरे से राजगर्ह कि किलेबंदी शुरू की| वरेजजीसंघ एक शक्तिशाली गणराज्य था और इससे मगध भी भलीभाँति परिचित था| अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखकर बिंबिसार ने इस संघ के साथ वैवाहिक संबंध भी स्थापित किये थे|
परंतु अजातशत्रु साम्राज्यवादी था और इस शक्तिशाली गणराज्य को नष्ट करके अपने अधीन लाना चाहता था| इस युद्ध के कई कारण थे| लिछवि राजकुमारी चेलना से बिंबिसार को दो पुत्र हुए हल्ल और बेहल्ल| बिंबिसार ने इन्हे अपना प्रसिद्ध हाथी और बहुमूल्य माला उपहार में दिए थे| राजा होते ही अजातशत्रु ने इन उपहारों को वापस मांगा , परंतु उन्होंने इसे लोटने से इनकार कर दिया| अपनी रक्षा के लिए वे लोग अपने नाना जी के यहाँ चले गए| क्रोधित होकर अजातशत्रु ने उनपर आक्रमण कर दिया| मगध और वज्जी के बीच गंगा नदी थी , जिस दोनों राज्यों का आधा आधा हिस्सा था| परंतु वज्जी लोग मगध के लोगों को इस नदी का उपयोग नहीं करने देते थे| अजातशत्रु ने इसका निपटारा शस्त्र से लिया| अजातशत्रु और उसके मंत्री वर्षकार ने कूटनीति से काम लिया , और गुप्तचर भेजकर वज्जी में फुट पैदा करवा दी| इस लड़ाई का प्रमुख कारण मगध कि प्रसार नीति ही थी| फुट डालने के बाद अजातशत्रु ने बड़ी ही सतर्कता के साथ सेना तैयार की थी| युद्ध भयानक और लंबा हुआ पर विजय अजातशत्रु कि ही हुई| इसके बाद अजातशत्रु उत्तर की और बढ़ा और उसने उत्तर के पहाड़ी इलाकों को जीता| अंग , काशी , वैशाली आदि को जीतकर मगध उत्तर भारत में शक्तिशाली राज्य हो गया था| कहा जाता हैं कि मगध और गणतंत्रों के बीच सोलह वर्षों से युद्ध चल या रहा था| इसके लिए मगध को कूटनीति से काम लेना पड़ा| उसके बाद अब एक अवन्ती ही ऐसा राज्य बच गया था , जो मगध का सामना कर सकता था| 32 वर्षों तक अजातशत्रु का शासन रहा था| कुछ लोगों के अनुसार बाद में वह महात्मा बुद्ध का आदर करने लग गया था| अजातशत्रु को बुद्ध के भस्म का एक भाग मिल था , जिसपर बाद में उसने राजग्रह में एक स्तूप का निर्माण करवाया था| उसी के समय महावीर और बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था| उसका शासनकाल 491 ईस्वी पूर्व से 459 ईस्वी पूर्व तक था|
उदायीन
एकछत्र राजा कि उपाधि के लिए मगध और अवन्ती में निर्णायक युद्ध अजातशत्रु के समय में नहीं ही सका| उसके बाद ही मगध और अवन्ती में पुरानी कशमकश फिर से ताजा हो गई| अजातशत्रु के बाद दर्शक मगध का राजा हुआ| लेकिन कुछ लोगों के अनुसार उदायीन को राजा बनाया गया था| उदायीन ने गंगा और सोन के ठीक संगम पर बड़े मौके से पाटलिपुत्र बसा कर राजग्रह से अपनी राजधानी वहाँ बदल ली थी| अपने पूर्वजों की तरह वह भी एक विजेता और साम्राज्यवादी था| अपने शासनकाल के दूसरे ही वर्ष में उसने अवन्ती के राज्य को जीतकर राजा विशखयउप को अपने अधीन कर लिया था| दस वर्ष बाद जब विशाखयुप कि मौत हुई थी , तब उदायी अवन्ती का प्रत्यक्ष राजा हो गया था| इस समय अवन्ती ने वतसराज को अपने अदिन कर लिया था| उदायी ने एक पड़ोसी राज्य पर हमला किया और उसके राजा को मार डाला| उस राजा के पुत्र ने बाद में अवन्ती कि राजधानी में शरण ली और बाद में जैन साधु का वेश धारण करके पाटलिपुत्र आया था|
वहाँ उसने सोये हुए उदायी कि हत्या कर दी| उदायी के विरुद्ध अवन्ती ने उस राजकुमार को आश्रय दिया| इसका साफ अर्थ ये था कि अवन्ती भी मगध से लोहा लेने को तैयार था| उदायी के समय मगध और अवन्ती के मध्य संघर्ष चलता रहा| अवन्ती का मगध में सम्मलीत होना इस युग की सबसे बड़ी घटना थी| अब पूर्वी समुद्र से पक्षिमी समुद्र तक मगध का एकक्षत्र राज्य हो गया| उदायी का शासनकाल 459 ईस्वी पूर्व से 443 ईस्वी पूर्व तक रहा था| उसके बाद इस वंश में और भी बहुत से राजा हुए , लेकिन वो सब बहुत ही कमजोर राजा थे और मगध को सही तरह से सुरक्षित नहीं रख पाए थे| इस वंश के बाद शिशुनाग वंश का उदय हुआ| उसके बाद नन्द वंश फिर मौर्य , हुन , कुषाण , गुप्त आदि बहुत से वंशों का उदय हुआ| और आज मगध को बिहार के नाम से जाना जाता हैं , हालंकि इसमें मगध के बहुत से भाग सम्मलीत नहीं हैं , लेकिन फिर भी आज भी बिहार की बहुत प्रतिष्ठा हैं|
तो ये था हमारा आज का ब्लॉग मगध के इतिहास के ऊपर आपको ये ब्लॉग कैसा लगा हमें कमेन्ट बॉक्स में जरूर बताएँ , और अपने सुझाव जरूर दे कि आपकी इस बारें में क्या राय हैं| धन्यवाद |
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